- फ़रहत जावेद
- इस्लामाबाद, बीबीसी उर्दू
पूर्वी पाकिस्तान के युद्धबंदी सैनिकों को लेकर जा रही ट्रेन जब भारत के एक स्टेशन पर रुकी, तब भारतीय सेना के एक अधिकारी डिब्बे में घुसे. घुसते ही उन्होंने ऊंची आवाज़ में पूछा, “किसी को अपनी करेंसी बदलवानी है तो बताए.”
उनके इतना कहते ही उस डिब्बे में मौजूद पाकिस्तानी सेना के कई अधिकारी अपनी जेबें टटोलने लगे. जेबें टटोलने के बाद उन्हें जो पैसे मिले, उसे उन्होंने भारतीय सेना के हाथों भारत की करेंसी में बदलवा लिया.
वो ट्रेन उस वक़्त पूर्वी पाकिस्तान से लगी भारतीय सीमा के बांगन से उत्तर प्रदेश की ओर जा रही थी. उस ट्रेन में पाकिस्तानी सेना के अधिकारी मेजर तारिक़ परवेज़ भी सवार थे.
मेजर तारिक़ परवेज़ ने पैसे लेकर उसे अपनी शर्ट के अलग-अलग हिस्सों में छिपा लिया. हालांकि उनके साथी सैन्य अधिकारी खाने-पीने की चीज़ें ख़रीद रहे थे, लेकिन परवेज़ अपने दिमाग़ में कुछ और ही योजना बना रहे थे.
यह बात दिसंबर 1971 की है. अभी कुछ ही दिनों पहले पाकिस्तान ने भारत के सामने आत्मसमर्पण के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. उसके बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया था.
इस हार के बाद, हज़ारों पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी क़रार दे दिया गया. उनमें से कुछ ख़ुशक़िस्मत सैनिकों को छोड़कर, बाक़ी सबने अगले कई साल भारत के विभिन्न सैन्य शिविरों में बिताए.
हार के बाद फ़तेहगढ़ भेजे गए सैनिक
भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद, पाकिस्तानी सेना के जवानों को युद्धबंदी के रूप में विभिन्न कैंपों में भेजने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी.
चूंकि बांग्लादेश में दंगों और पाकिस्तानी सैनिकों पर हमले का ख़तरा था. साथ ही इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों को लंबे समय तक वहां रखने की कोई व्यवस्था भी नहीं थी. इसलिए इन सैनिकों को भारत भेजने का फ़ैसला किया गया.
मेजर तारिक़ परवेज़ और उनके चचेरे भाई मेजर नादिर परवेज़ सहित सैकड़ों अधिकारी और सैनिक ट्रेन में सवार थे, जो विभिन्न क्षेत्रों से होती हुई आख़िर में भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश की फ़तेहगढ़ छावनी पहुंची.
यहां युद्धबंदियों के लिए बने एक कैंप में उन अधिकारियों और सैनिकों को अगले सवा दो साल गुज़ारने थे.
क़ैद से फ़रार होने की योजना तो उसी समय बननी शुरू हो गई थी, जब आत्मसमर्पण की ख़बरें छावनियों से होते हुए अगले मोर्चों तक पहुंच गई थी. कई जवानों ने भागने की कोशिश भी की, लेकिन सफल न हो सके.
ध्यान रहे कि अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार, युद्ध के प्रत्येक क़ैदी को दुश्मन की क़ैद से बचने की कोशिश करने का अधिकार है और अगर ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर उन्हें सज़ा नहीं दी जा सकती.
मेजर तारिक़ परवेज़ और उनके साथी इसी ताक़ में रहे कि कहीं किसी भारतीय सैनिक से कोई चूक हो और मौक़ा मिलते ही वे ट्रेन से भाग जाएं, लेकिन मजाल है कि कोई भारतीय सैनिक टस से मस भी हुआ हो.
मेजर तारिक़ परवेज़ और उनके साथ वाले बंदियों को फ़तेहगढ़ छावनी के कैंप नंबर 45 में रखा गया. इस कैंप में अधिकारियों के लिए दो लंबी बैरक थी और एक बैरक को छह हिस्सों में बांटा गया था.
एक हिस्सा जूनियर अधिकारियों के रहने के लिए था जबकि दूसरा हिस्सा मनोरंजन के लिए, तीसरा हिस्सा डाइनिंग हॉल के लिए और चौथा हिस्सा अर्दलियों के लिए था.
एक हिस्से में किचन और स्टोररूम भी थे. दूसरे बैरक को दो हिस्सों में बांटा गया था. एक हिस्सा आठ फ़ीट लंबा था जिसमें लकड़ी के पांच बाथरूम थे, जबकि दूसरे हिस्से में 43 अधिकारियों को रहना था.
इन अस्थायी बाथरूमों के साथ ही एक गहरी खाई वाला शौचालय भी बनाया गया था. यही वह बैरक थी जहां मेजर तारिक़ परवेज़ को क़ैद किया गया था और यही वो बाथरूम थे जहां से भागने की योजना शुरू हुई थी.
भागने की योजना कैसे बनी?
इसके बाद मेजर तारिक़ परवेज़ पाकिस्तानी सेना में लेफ़्टिनेंट जनरल के पद तक पहुंचे. उन्होंने बांग्लादेश की स्थापना की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर पाकिस्तान के युद्धबंदियों के साथ होने वाली घटनाओं और कैंप नंबर 45 से फ़रार होने के बारे में बीबीसी से बात की.
तारिक़ परवेज़ ने बताया कि भागने के लिए तैयार पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों ने पहले एक-एक जोड़ी कपड़े छिपाए. फिर करेंसी छिपाई. उन अधिकारियों ने क़ैद के दौरान फ़ोटो खिंचवाने के लिए दाढ़ी बढ़ाई. इसकी वजह यह थी कि वे भागने के बाद कुछ हद तक अपना चेहरा बदल सकें.
कपड़े इसलिए छुपाए थे क्योंकि उन्हें मिलने वाले सरकारी कपड़ों पर POW (प्रिज़नर ऑफ़ वॉर) यानी युद्धबंदी की मुहर लगी हुई थी.
इतनी कड़ी सुरक्षा में से भागना आसान नहीं था. भारतीय सेना ने जेलों को फ़ुलप्रूफ़ बना दिया ताकि कोई भाग न सके. कैंप में कांटेदार तार की पाँच लाइनें थीं जिनमें 50 गज़ की दूरी पर वॉच टावर बने हुए थे, सभी वॉच टावर पर सर्चलाइट लगी हुई थी और प्रत्येक 20 गज़ की दूरी पर एक ट्यूब लाइट थी.
हिरासत में रहने के कुछ ही दिनों बाद, दोनों कज़िन, मेजर तारिक़ परवेज़ और मेजर नादिर परवेज़ ने, कुछ अन्य अधिकारियों को भी अपने साथ शामिल कर लिया और अब भागने के लिए एक योजना तैयार हुई.
फ़ैसला ये हुआ कि और तो कोई रास्ता नहीं है, क्यों न एक सुरंग खोदी जाए. सुरंग खोदने के लिए बाथरूम की लाइन में आख़िरी बाथरूम को चुना गया. ये बाथरूम कैंप की बाहरी दीवार के सबसे क़रीब था और यहां एक कोने में बल्ब की रोशनी नहीं थी.
सुरंग यहीं खोदी जानी थी. सुरंग कैसे खोदी जाए, यह समस्या भी जल्द ही हल हो गई.
लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) तारिक़ परवेज़ बताते हैं कि सुरंग खोदने के लिए कमरे में कपड़े टांगने के लिए लगे सरिये के एक हुक का इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया गया.
लेकिन बाथरूम का फ़र्श पक्का था और उसे तोड़ते तो शोर होता. भारतीय सैनिक चौबीसों घंटे पहरा देते रहते थे, लेकिन इसका समाधान भी निकाल लिया गया.
फ़तेहगढ़ छावनी राजपूत रेजीमेंट का ट्रेनिंग सेंटर था. कैंप के पास ही फ़ायरिंग रेंज थी जहां भारतीय सैनिक राइफ़ल फ़ायरिंग का अभ्यास करते थे. उनकी प्रेक्टिस के समय के घंटे नोट किए गए.
तारिक़ परवेज़ बताते हैं: “सुरंग के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पहला हथियार वो हुक था. जब वो फ़ायर करते तो मैं ठक से सरिये से चोट लगाता. वहां फ़ायर होता यहां ठक ठक ठक… ऐसा करते-करते हमने फ़र्श तोड़ दिया.”
ऐसा करते-करते सुरंग का गड्ढा तो बन गया, लेकिन अब मुश्किल यह थी कि इसे छिपाया कैसे जाए. एक बार फिर बंदी अधिकारियों की गुप्त ‘मीटिंग’ हुई.
ख़ुशक़िस्मती से इनमें से एक अधिकारी मेजर रिज़वान थे, जो पाकिस्तान इंजीनियर्स कोर के एक अधिकारी थे. उन्हें इस योजना में शामिल किया गया और उन्हें एक ऐसा ढक्कन बनाने के लिए कहा गया जो उस गड्ढे को कवर कर सके और तलाशी के दौरान ये न पता चल सके कि ये फ़र्श यहां से टूटा हुआ है. मेजर रिज़वान की मदद से लोहे की चारपाई से तार निकाल कर मैनहोल का ढक्कन बनाया गया.
अब किचन से एक बड़ी सी छुरी चुराई गई और इस तरह से छुरी से सुरंग खोदने का काम शुरू हुआ. छावनी के बगल में ही नदी थी तो वहां की ज़मीन थोड़ी नरम थी.
तारिक़ परवेज़ गर्व से बताते हैं, ”रसोई का एक चाकू था और हमने पूरी सुरंग बना दी.”
अगला क़दम यह पता लगाना था कि खुदाई से निकली मिट्टी का क्या करना है. इसके बारे में तारिक़ परवेज़ ने बताया कि उन्होंने मिटटी लोटों में भर कर उसे शौचालय के नीचे खाई में फेंकना शुरू कर दिया.
उन्होंने कहा कि सुरंग की खुदाई में शामिल अधिकारियों को समूहों में बांटा गया. कुछ की ज़िम्मेदारी सुरंग खोदने की थी, कुछ का काम सिक्योरिटी और भारतीय संतरियों की निगरानी करना था और तीसरे समूह की ज़िम्मेदारी मिट्टी को ठिकाने लगाने की थी.
तारिक़ परवेज़ हंसते हुए कहते हैं, कि “भारतीय सैनिकों ने इस पर कभी ग़ौर नहीं किया कि खाई की गहराई कम हो रही है और मिट्टी का लेवल धीरे-धीरे ऊपर हो रहा है.”
जनवरी 1972 में शुरू होने वाली सुरंग की खुदाई का काम अगले सात महीनों तक जारी रहा.
फ़तेहगढ़ से फ़रार
तारिक़ परवेज़ के साथ फ़रार होने वाले सेना अधिकारी कैप्टन नूर अहमद क़ायम ख़ानी ने ‘हिकायत’ पत्रिका के संपादक इनायतुल्लाह के साथ फ़रार होने की इस पूरी कहानी को अपनी किताब “फ़तेहगढ़ से फ़रार तक” में लिखी है.
वह लिखते हैं कि भारतीय अधिकारी आकर डींगें मारते थे कि उनके कैंप की सुरक्षा इतनी ज़्यादा है कि वहां से कोई भाग नहीं सकता. ऐसे में जहां एक तरफ़ कुछ पाकिस्तानी सैनिक उनकी हां में हां मिलाते वहीं दूसरी तरफ़ जब ये बातचीत चल रही होती तो कुछ क़दमों की दूरी पर कई फ़ीट गहरी सुरंग खोदने का काम चल रहा होता था.
तारिक़ परवेज़ कहते हैं कि जब भारतीय जवान चेकिंग के लिए आते तो सभी लड़के भागते और बाथरूम में कपड़े बदलते. लेकिन वो बाथरूम वाला नहीं निकलता था जिसमें सुरंग खोदी जा रही थी वह लगातार नहाता ही रहता था.
कैप्टन नूर क़ायम ख़ानी लिखते हैं कि 16 सितंबर 1972 तक सुरंग कैंप की सीमा से बाहर निकल गई थी जिसके बाद मेजर नादिर परवेज़, तारिक़ परवेज़ और कैप्टन नूर सहित पांच अधिकारियों ने 17 सितंबर की रात को भारतीय सेना के क़ैदियों की गिनती करने के बाद वहां से निकलने की योजना बनाई.
17 सितंबर की रात मेजर नादिर परवेज़, उनके कज़िन मेजर तारिक़ परवेज़ और कैप्टन नूर क़ायम ख़ानी निकले जबकि उनके कुछ घंटे बाद कैप्टन ज़फ़र हसन गुल और लेफ़्टिनेंट यासीन कैंप से निकले. इन जवानों ने पाकिस्तान से आई हुई वर्दी पहनी और सुरंग से बाहर निकले. इस फ़ैसले का कारण यह था कि अगर गोली लगी तो वे अपनी सेना की वर्दी में मरेंगे.
तारिक़ परवेज़ कहते हैं, कि “हम सभी ने ये तय किया कि जो भी अधिकारी टोलियों में बाहर निकलना चाहते हैं, वे अपनी योजना बनायें और किसी अन्य समूह को इसके बारे में न बताएं, ताकि पकड़े जाने पर, टॉर्चर के बावजूद, हम एक-दूसरे के बारे में कुछ न बता सकें.
वो कहते हैं कि पांच अधिकारियों के अलावा कोई भी इसलिए बाहर नहीं निकला क्योंकि उनके पास न तो भारतीय करेंसी थी और न ही ऐसे कपड़े थे जिन पर पीओडब्ल्यू की मोहर न लगी हो.
“इसके अलावा, फ़रार होने का फ़ैसला एक मुश्किल क़दम है. सभी जानते थे कि एक दिन पाकिस्तानी युद्धबंदी वतन वापस लौट जाएंगे, लेकिन अगर वे भागते हुए पकड़े गए तो उन्हें गोली मारी जा सकती है. इसलिए पांच अधिकारियों के अलावा किसी ने जोख़िम नहीं उठाया.
फ़रार होने वाले सैनिकों में से पहले तीन (मेजर तारिक़, मेजर नादिर और कैप्टन नूर अहमद क़ायम ख़ानी) ने बाहर आकर, अपने कपड़े बदले और अपनी दाढ़ी शेव की. इस तरह उनका हुलिया उन तस्वीरों से कुछ अलग हो गया जो अगले कुछ दिनों में भारतीय अख़बारों में छपने वाली थी.
जब इन सैनिकों के भागने की ख़बर भारतीय अख़बारों में छपी तो पाकिस्तान में सैन्य नेतृत्व ने भारत से लगी सीमा पर ये आदेश पहुंचा दिया कि जो लोग सीमा या नियंत्रण रेखा पार करने की कोशिश करेंगे, उन्हें निशाना नहीं बनाया जाएगा.
हालांकि, फ़रार होने वाले अधिकारियों ने पहले ही तय कर लिया था कि वे बारूदी सुरंगों के कारण सीमावर्ती इलाक़ों में नहीं जाएंगे, बल्कि वो समुद्र के रास्ते या नेपाल में पाकिस्तानी दूतावास पहुंचकर अपने वतन वापस जाने की व्यवस्था करेंगे.
लेफ़्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) तारिक़ परवेज़ का कहना है कि जब उनके पास केवल 10 रुपये बचे तो ये तय किया गया कि अब और तो कुछ नहीं हो सकता इसलिए सिनेमा में ‘पाकीज़ा’ फ़िल्म देखी जाए.
“फ़िल्म देखी और बाहर आकर ताज़ा जूस पिया और फिर हम बैठ गए कि अब पैसे तो ख़त्म हो गए. हमने यहां कुछ मुस्लिम परिवारों से संपर्क करने का फ़ैसला किया और भी कुछ लोगों से मुलाक़ात की लेकिन कोई भी मदद को तैयार नहीं हुआ.
आख़िरकार, उन तीनों ने जमात-ए-इस्लामी-हिंद के एक सदस्य से संपर्क किया जिन्होंने उन तीनों को लखनऊ के टिकट ले दिए और लखनऊ में कुछ लोगों को उनकी मदद के लिए पत्र लिखा.
“तुम तीनों वही हो जो फ़तेहगढ़ से भागे हो.”
लखनऊ पहुंचने पर जिस परिवार से उनकी मुलाक़ात हुई, उनकी कहानी सुनकर उन्होंने कहा, कि “तुम लोग झूठ बोल रहे हो. तुम तीनों वही हो जो कुछ दिन पहले फ़तेहगढ़ की जेल से फ़रार हुए थे.
तारिक़ परवेज़ के मुताबिक़, उस परिवार के एक बुज़ुर्ग ने उनकी मदद की और 30 सितंबर को नेपाल की सीमा पार करवा दी.
यहां से वह 70 मील की पैदल यात्रा के बाद नेपाल के सीमा क्षेत्र भेरवा पहुंचे और यहां की एक मुस्लिम गांव की मस्जिद में रुके. वहां से हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदा गया और नादिर परवेज़ काठमांडू के लिए रवाना हुए जहां वह पाकिस्तान के दूतावास पहुंचे और अन्य दो अधिकारियों के लिए भी टिकट भिजवाए.
तारिक़ परवेज़ ने बीबीसी को बताया, ‘मैं उस पल को कभी नहीं भूल सकता जब मैं काठमांडू एयरपोर्ट से निकल कर पाकिस्तान दूतावास की तरफ़ जा रहा था. मैंने दूर से दूतावास की इमारत पर अपने देश का झंडा लहराते देखा तो ख़ुशी से मेरी आंखों में आंसू आ गए.”
ये तीनों 11 अक्टूबर को पीआईए की उड़ान से कराची पहुंचे जहां उनकी सिक्योरिटी क्लियरेंस हुई और उसके बाद उन्हें उनके परिवारों से मिलने की इजाज़त मिली.
तारिक़ परवेज़ बताते हैं, कि “जब मैं विमान से उतरा तो सबसे पहले मैंने सजदा किया कि मैं अपनी धरती पर वापस आ गया हूँ. हमारी हालत ऐसी थी कि घरवालों ने हमें पहचाना ही नहीं. लेकिन वो समय बहुत ही भावुक कर देने वाला था. मेरी मां मुझे बार-बार गले लगाती थीं.”
वो क़ैदी जो ख़ुशक़िस्मत नहीं थे
ये पांच अधिकारी तो क़ैद से भागने में सफल रहे, लेकिन हज़ारों पाकिस्तानी सैनिकों और नागरिक सशस्त्र बलों के अधिकारियों में से कोई भी इतना ख़ुशक़िस्मत साबित नहीं हो सका. कई युद्धबंदियों ने भागने की कोशिश भी की, लेकिन असफल रहे.
मेजर (सेवानिवृत्त) साबिर हुसैन और मेजर (सेवानिवृत्त) नईम अहमद उन सैनिकों और अधिकारियों में से थे जिन्होंने भारत में युद्धबंदियों के लिए बने कैंपों में क़ैद की कठिनाइयों को सहन किया.
मेजर साबिर हुसैन आज़ाद कश्मीर रेजीमेंट से थे. जब युद्ध शुरू हुआ तो वह शंक्यारी में अपनी यूनिट के साथ थे, वहां उन्हें तुरंत कराची पहुंचने और वहां से ढाका के लिए रवाना होने का आदेश मिला.
मैंने ’65 का युद्ध भी लड़ा, लेकिन वो एक संगठित युद्ध था उसकी योजना बनाई गई थी और उसी के अनुसार तैनाती होती थी. लेकिन 1971 के युद्ध में ऐसा कुछ नहीं था.
मेजर साबिर का कहना है कि पूर्वी पाकिस्तान पहुंचने के बाद उन्हें न रास्ते पता थे और न ही उन्हें अपने साथियों पर भरोसा रहा था.
“हमारे अपने बंगाली सैनिक बाग़ी हो गए थे जिसको जहां मौक़ा मिलता नुक़सान पहुंचा देता. कोई हत्या कर रहा था कोई रास्ता ग़लत दिखा रहा था. हम तो चारों तरफ़ से दुश्मन से घिरे हुए थे. पूर्वी पाकिस्तान के लोग हमारे दुश्मन थे, वहां के अधिकारी हमारे दुश्मन थे, वहां के सिपाही हमारे दुश्मन थे. रास्ता दिखाने के लिए हमें जो गाइड मिलते थे, उनका भी भरोसा नहीं था, वो भी बंगाली थे. हां, बिहार के लोगों ने हमारा साथ दिया और ईमानदारी से हमारा साथ दिया.”
‘भारतीय अधिकारी की डांट अपमानजनक लगती’
जब जनरल आमिर अब्दुल्ला ख़ान नियाज़ी ने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया तो मेजर साबिर ने कहा कि पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं आया कि वे हार गए हैं और अब वे युद्धबंदी हैं.
“हम पानी के जहाज़ से कलकत्ता से बिहार आये. किसी को नहीं पता था कि कहां जाना है और उनके साथ क्या होगा. वहां हमें चार-पाँच दिन पुराना पका हुआ खाना मिलता था, पता नहीं कहां पकाया जाता था. हम समुद्र के पानी से रोटी को धोते, फिर उसे सुखाते. ये हमारा भोजन था.”
मेजर साबिर का कहना है कि ”भारतीय सैनिक तो कुछ ठीक थे, लेकिन बंगाली सैनिकों का रवैया ख़ास तौर से बुरा था और इस दौरान इतना प्रोपेगंडा हो चुका था कि वे पाकिस्तानी सैनिकों को अपना दुश्मन समझते थे. दुख होता था कि कल तक जिनसे हम आमने-सामने बात करते थे, आज हम उनके सामने सिर झुकाकर बात कर रहे हैं. हमें घंटों खड़ा रखा जाता, कड़ाके की ठंड में हम एक दो घंटे तक खड़े रहते. शारीरिक सज़ा तो नहीं दी जाती थी कि थप्पड़ मार दिया, लेकिन सेना की सज़ा आम थी और फिर अपने भीतर का ये युद्ध भी बहुत बड़ा था. सामान्य स्थिति में अपना अधिकारी भी डांटे तो बहुत दुख होता है, लेकिन एक भारतीय डांटता तो अपमान महसूस होता था.”
उनका कहना है कि जेल में छह महीने तक वह अपने परिवार से संपर्क नहीं कर सके. जब वह पूर्वी पाकिस्तान गए उस समय मेजर साबिर हुसैन की बेटी नौ महीने की थी.
उन्हें छोड़ कर जाने का समय कितना दुखद होगा इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 50 साल बाद भी अपनी बेटी के साथ विदाई मुलाक़ात का ज़िक़्र करते हुए मेजर साबिर हुसैन की आँखें नम हो गईं.
“मैं उस पल को कभी नहीं भूल पाया. पिछली बार जब मैं गया था तो मैंने उसे गले लगाया था. क़ैद के दौरान मेरे दिमाग़ में वही पल दौड़ता रहा.”
क़ैद के दिनों का ज़िक्र करते हुए मेजर साबिर हुसैन ने सिगरेट छोड़ने का एक दिलचस्प किस्सा भी बताया.
“सिगरेट एक अजीब अभिशाप था उस पर बहुत सारे झगड़े होते थे. सभी सैन्य अधिकारी सिगरेट के शौक़ीन थे. वे रोटी के बिना रह सकते थे, लेकिन सिगरेट के बिना नहीं रह सकते थे और सिगरेट को लेकर झगड़ा भी होता. मेरे अर्दली ने मेरे लिए ढेर सारी सिगरेट रखी हुई थी. सिगरेट को लेकर इतने झगड़े देखकर सिगरेट से मेरा दिल उठ गया. मैंने अपनी सिगरेट का पूरा स्टॉक सैनिकों में बांट दिया और कहा कि लड़ो मत और ये पियो. लेकिन उस दिन के बाद मैंने सिगरेट छोड़ दी थी.”
मेजर साबिर हुसैन के अनुसार, उन्हें वापसी का अंदाज़ा उस समय हुआ, जब बीमार क़ैदियों को कैंप से लेजाना शुरू किया गया.
“अप्रैल 1974 में हमें ट्रक द्वारा बिहार से रांची ले जाया गया. वहां से उन्हें एयरपोर्ट और फिर विमान से वापस पाकिस्तान लाया गया.”
वो बताते हैं कि पाकिस्तान पहुंचने के बाद के दृश्य काफ़ी इमोशनल करने वाले थे. लेकिन इस सबके दौरान उनकी तवज्जो अपनी बेटी पर ही रही.
“जब मेरी क़ैद ख़त्म हुई तब मेरी बेटी लगभग तीन साल की थी. जब मैं वापस आया तो वो एक दम से मेरी गोद में आकर बैठ गई. मुझे वापस आने पर अगर सबसे ज़्यादा ख़ुशी थी तो वह अपनी बेटी से मिलने की थी.”
लेकिन उस क़ैद ने उनके व्यक्तित्व और उनके करियर दोनों को ही प्रभावित किया. जो क़ैदी वापस आये उन्हें यूनिट में घुलने मिलने में समय लगा.
मेजर साबिर हुसैन बताते हैं कि वापसी के बाद जब वह यूनिट में पहुंचे तो वहां अधिकारियों और ख़ुद में अंतर महसूस होता था.
“हमें वापस सामान्य होने में काफ़ी समय लगा. हम ख़ुद को कमतर समझते थे क्योंकि हम दुश्मन की क़ैद काट कर आये थे. यहां भी कोई न कोई ताना मारता. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें कई चीज़ों की आदत हो गई.”
“साल 1971 का युद्ध हमारे लिए कभी ख़त्म नहीं हुआ.”
ख़ुशक़िस्मती ये थी, कि मेजर साबिर हुसैन जैसे हज़ारों सैनिक समय के साथ सामान्य ज़िंदगी में लौट आए, लेकिन बहुत से ऐसे थे जिनकी परीक्षा होनी अभी बाकी थी और कई सैनिकों और उनके परिवारों के लिए, यह युद्ध कई दशकों तक जारी रहा जिनमें से एक मेजर नईम अहमद थे.
मेजर नईम अहमद की बेटी सानिया अहमद ने बीबीसी से बात की और अपने पिता के बारे में बताया. वह कहती हैं कि उनके और उनके भाइयों के लिए 1971 का ये युद्ध कभी ख़त्म नहीं हुआ था.
वह कहती हैं कि उनके पिता अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे और उन्हें सेना में शामिल होने की अनुमति इसी शर्त पर मिली थी कि वह युद्ध करने वाली डिवीज़न में नहीं रहेंगे.
वह कहती हैं कि पूर्वी पाकिस्तान पहुंचने के बाद उनके पिता मेजर नईम अहमद को सैनिकों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने का काम सौंपा गया था.
अपने पिता के पकड़े जाने की घटना को याद करते हुए, सानिया ने बताया कि जब उन्हें यह ख़बर मिली कि उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है तो उन्हें सभी गोला-बारूद को नष्ट करने का आदेश दिया गया, ताकि यह दुश्मन के हाथों में न पड़ सके.
सानिया अहमद ने कहा कि उनके पिता और उनके साथियों को गोला-बारूद नष्ट करने वाली जगह पर जाना था जो उनके मोर्चों से क़रीब 50 किलोमीटर दूर था, लेकिन ग़लती से वे ग़लत जगह पर चले गए और एक घने जंगल में पहुंच गए.
“वहां पहुंच कर एहसास तो हुआ कि यह सही जगह नहीं है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और भारतीय सैनिकों ने हमला कर दिया.”
सानिया अहमद बताती हैं, कि हमला करने वाले भारतीय सैनिक एक इलीट ग्रुप के थे जो युद्ध में माहिर थे और पाकिस्तानी सेना के 150 जवान वो थे जो लड़ाका दस्तों से नहीं थे.
“पाकिस्तानी सैनिक तीन घंटे तक लड़ते रहे. इतनी बहादुरी से लड़े कि भारतीय सेना की कमान संभालने वाले मेजर जायसवाल ने बाद में कहा कि ये अधिकारी इन्फ़ैंट्री दस्तों की तरह लड़ रहे थे.”
इस लड़ाई के दौरान सानिया अहमद के पिता मेजर नईम एक मोर्टार गोले से घायल हो गए और उनकी एक आंख चली गई.
सानिया अहमद बताती हैं कि उनके चेहरे पर गोले के घावों ने उन्हें पहचानना मुश्किल बना दिया था और वह कई महीनों तक लापता व्यक्तियों की सूची में रहे और पाकिस्तान में लोग शोक व्यक्त करने के लिए उनके माता-पिता से मिलने जाते रहे.
लेकिन आख़िर में जहां उनका इलाज हो रहा था उस अस्पताल में उनके दोस्त ने उन्हें पहचान लिया. सानिया बताती हैं कि स्वस्थ होने के बाद उन्हें युद्ध बंदी बनाकर रांची जेल में भेज दिया गया.
“जब मेरे पिता उस जेल में पहुंचे तो उनके पास कपड़े नहीं थे. फिर उन्होंने सूई धागा लिया और ख़ुद ही अपने कपड़े बनाये, जिसके बारे में वह बहुत ही गर्व से बताते थे. उन्हें बहुत गर्व था कि जेल में उन्होंने दर्जनों अधिकारियों और पुरुषों को क़ुरान पढ़ना सिखाया.”
‘पिताजी को दौरे पड़ने लगे’
सानिया अहमद का कहना है कि उनके पिता मेजर नईम अहमद 1974 में भारत से लौटे थे और वह ज़ाहिर तौर पर एक सामान्य, स्वस्थ व्यक्ति थे.
“उन्होंने शादी कर ली और उनके बच्चे भी हुए. अब्बू हमसे इतना प्यार करते थे कि हमसे लाड़-प्यार करने के लिए वह हमें पैसे भी देते थे. वह बहुत अच्छे गायक थे और उन्होंने मुझे नात (पैग़ंबर मोहम्मद की तारीफ़ में शेर) पढ़नी सिखाई. मैं संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लेती थी और वो घंटों अभ्यास कराते थे. लेकिन 1984 में उनके दिमाग़ पर असर दिखने लगा.”
सानिया अहमद का कहना है कि समय बीतने के साथ-साथ न केवल उनके पिता की याददाश्त कमज़ोर होती गई, बल्कि उन्हें दौरे भी पड़ने लगे.
वो ऐसी बातें करते जो सच नहीं होतीं, लेकिन उन्हें वही सच लगता. ये स्थिति उनके कार्यालय और क़रीबी साथियों ने भी ध्यान देना शुरू कर दिया और फिर छह महीने के लिए उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा.
इस दौरान उन्हें डिमेंशिया, डिप्रेशन और हेलूशिनोशन जैसी बीमारियों का पता चला. अपने पिता की याद की एक ख़ास घटना आज भी सानिया के दिमाग़ में छपी हुई है.
”अब्बू हमारे साथ हमेशा बहुत ख़ुश रहते थे. ड्राइविंग उनका शौक़ था लेकिन उनकी नसें काम करना बंद कर रही थीं इसलिए वह ड्राइव भी नहीं कर पाते थे. यह बात उनके लिए दर्दनाक थी. एक बार, 7 सितंबर को, वे हमें एक एयर शो दिखाने ले गए. वह गाड़ी चला रहे थे और एक बार वह पीछे मुड़े. वह हमसे कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन उनके मुंह से शब्द नहीं निकल पाए. हम भाई-बहन बहुत छोटे थे, लेकिन उन्हें हौसला दिया कि कोई बात नहीं. आप ठीक हो जायेंगे. उस समय मुझे एहसास हुआ कि अब्बू शायद अब बोल भी नहीं पाएंगे.”
दो दशक बाद दिमाग़ में मोर्टार के छर्रे मिले
धीरे-धीरे मेजर नईम की बोलने और चलने की क्षमता कम होने लगी. साल 1989 में सेना ने उन्हें एक साल के लिए वर्दी पहनने से रोक दिया, मेजर नईम के लिए ये एक बहुत ही सख़्त क़दम था.
सानिया अहमद बताती हैं कि उनके पिता पहले से ही गंभीर ज़हनी तनाव से जूझ रहे थे, लेकिन वर्दी न पहनने का ग़म हर चीज़ पर हावी हो गया और इस मौक़े पर उन्होंने फ़ैसला किया कि वह सेना से रिटायरमेंट ले लेंगे.
“जिस दिन उन्होंने आख़िरी बार वर्दी पहनी थी, उस दिन वो ख़ास तौर से तैयार हुए थे और इस पल को यादगार बनाने के लिए बच्चों के साथ फ़ोटो भी खिंचवाई थी.”
रिटायरमेंट के बाद, मेजर नईम ने सेना की एक कल्याण संस्था में काम करना शुरू कर दिया, लेकिन कुछ समय बाद उन्हें मिर्गी का दौरा पड़ा. इसके बाद उन्हें सीएमएच ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने सीटी स्कैन की सलाह दी.
जब अब्बू का सीटी स्कैन हुआ तो डॉक्टर हैरान रह गए. 1971 में उन्हें जो मोर्टार शेल लगा था उसके सैकड़ों टुकड़े वहीं मौजूद थे और 22, 23 वर्षों में वो पहली बार देखे गए थे. तब जाकर समझ आया कि उनकी सभी बीमारियां किस वजह से थीं.
सानिया अहमद ने बताया कि इसका पता चलने के बाद अस्पताल आना-जाना सामान्य हो गया था और वह हफ़्तों तक कोमा में रहते और डॉक्टर कहते कि अब उनके लिए बस दुआ करें.
“लेकिन वह हमेशा बीमारी से लड़ते और घर आ जाते. फिर साल 2000 में उन्हें एक और दौरा पड़ा तो वो 10 सप्ताह के लिए सीएमएच में भर्ती रहे. वह उस समय कोमा में थे. जब वहां के एक न्यूरोसर्जन ने उनकी मेडिकल हिस्ट्री पढ़ी, तो पहली बार किसी डॉक्टर ने बताया कि उन्हें सेरेब्रल एट्रोफ़ी है, यानी उनके सिर में छर्रों के कारण उनका दिमाग़ कई सालों से सिकुड़ रहा था.”
अपने पिता की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों के बारे में ज़िक्र करते हुए सानिया की आँखें नम हो गई थीं.
वह बताती हैं कि मग़रिब (सूर्यास्त) का समय था और जब वह अपने पिता के कमरे से बाहर निकली तो उन्होंने नम आंखों से दुआ की कि उनके लिए वही हो जो अच्छा है.
उन्होंने कहा, “मैंने हमेशा उनकी वापसी (रिकवरी) के लिए दुआ की थी क्योंकि वह एक फ़ाइटर थे. इससे पहले मैंने कभी यह दुआ नहीं की थी. मुझे अभी भी नहीं पता कि मैंने ऐसा क्यों कहा.”
कुछ पलों के बाद जब सानिया दोबारा अपने पिता के कमरे में गई तो उन्होंने अपने पिता से बात करना शुरू की जो कोमा में होने की वजह से बेख़बर सो रहे थे.
“मैंने उनका हाथ सहलाया तो उन्होंने अपने हाथ को हिलाया और मेरा हाथ थाम लिया. अब्बू इतने लंबे समय से कोमा में थे, लेकिन वह थोड़ा उठे, अपना सिर उठाया, कंधे उठाए और थोड़ा सा खांसे. फिर उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ा और फिर उनकी सांस की डोरी टूट गई.”