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भारत ने चीन के साथ खेल कर दिया

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भारत ने चीन के साथ खेल कर दिया

एक शख्स ताकतवर तभी माना जा सकता है जब उसका घर भी अच्छे से चले और मुहल्ले में उसकी धाक हो, इज़्ज़त हो. और यही बात देशों पर भी लागू होती है. भारत की हमेशा चाह रही है कि उसे दक्षिण एशिया में इज़्ज़त मिले, उसे एक ताकतवर मुल्क की तरह देखा जाए. भारत की यही इच्छा उसकी विदेश नीति की दिशा तय करती है. और इसीलिए जब हम नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका या मालदीव के आंतरिक मसलों का ज़िक्र छेड़ते हैं, भारत का ज़िक्र अनायास ही चला आता है.

बीते कुछ दिनों में भारत के पड़ोसी मुल्कों में चीन का दखल बहुत बढ़ा है. एक वक्त तो ऐसा भी आया, जब लगने लगा कि चीन बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के नाम पर जो सड़कें और पुल बना रहा है, वो भारत को उसके पड़ोसियों से काट ही देंगी. लेकिन जैसा कि अंग्रेज़ी का मुहावरा है – the tide has turned. वक्त बदल रहा है और भारत अपनी खोई ज़मीन को दोबारा हासिल कर रहा है. थोड़े ही समय में भारत ने मालदीव और श्रीलंका से अपने संबंध सुधारे हैं. और रूस-यूक्रेन संकट के चलते हो रही खेमेबाज़ी से भी खुद को बचाया है. तो आज दिन की बड़ी खबर में हम भारत की विदेश नीति के बारे में ही बात करेंगे. यूक्रेन, श्रीलंका और मालदीव के बहाने ये समझेंगे कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी स्वायत्ता कैसे बचा रहा है, बढ़ा रहा है.

1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब तक दुनिया दो धड़ों में बंट चुकी थी. एक तरफ पश्चिम का गुट था, जिसका कप्तान था अमेरिका. दूसरी तरफ पूर्व का गुट था, जिसका कप्तान सोवियत संघ था. भारत के आज़ाद होते ही उससे पूछा जाने लगा – पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? तुम किस पाले में हो? CIA में हो, या KGB वाले हो?

नेहरू सरकार ने इस बात को समझा कि भारत जैसे नए-नए आज़ाद हुए मुल्क के लिए तुरंत कोई पाला पकड़ लेना ठीक नहीं होगा. इसीलिए नेहरू ने गुट निरपेक्षता के सिद्धांत में निवेश किया. अंग्रेज़ी में इसे ही नॉन अलाइंड मूवमेंट कहा जाता है. भारत और उसकी तरह नए-नए आज़ाद हुए ढेर सारे मुल्क इस नॉन अलाइंड मूवमेंट से जुड़ते चले गए. पश्चिम और पूर्व के गुटों का राजनीति, अर्थव्यवस्था और विदेश नीत के मामले में एक तय फॉर्मूला था. एक तरफ पूंजीवाद था, दूसरी साम्यवाद. लेकिन नॉन अलाइंड मूवमेंट में शामिल देश किसी तय फॉर्मूले पर नहीं चले. पूर्व और पश्चिम के अनुभवों से अच्छी बातें सोखते चले गए. मिसाल के लिए भारत ने नेहरू काल में सोवियत संघ की मदद से इस्पात के कारखाने भी लगाए और ब्रिटेन-फ्रांस जैसे देशों से लड़ाकू विमान भी खरीदे.

विदेश नीति के किसी और कदम की तरह ही नॉन अलाइंड मूवमेंट या गुट निर्पेक्ष आंदोलन की भी आलोचना होती है. और होनी भी चाहिए. लेकिन आज तक भारत की विदेश नीति का ”एसेंस” कमोबेश वही है, जो गुट निरपेक्ष आंदोलन के वक्त था. कोई फॉर्मूला न होना ही हमारा फॉर्मूला है. हमने एक ज़माने में सोवियत संघ के साथ ”ट्रीटी ऑफ फ्रेंडशिप एंड कोऑपरेशन” पर भी दस्तखत किए और फिर हमने अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील भी कर ली. लेकिन हम कभी किसी गुट में नहीं बंधे. लेकिन क्या किसी पहलवान का चीयरलीडर न बनना, हमारे लिए नुकसान का सौदा था? जी नहीं.

भारत सरकार के विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर कहते हैं कि नॉन अलाइंड मूवमेंट का ही नया स्वरूप भारत की स्ट्रटीजिक अटॉनमी है. इसके फायदे क्या रहे, ये येल NUS कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने वाले रोहन मुखर्जी ने अपने लेख के एक हिस्से में बहुत अच्छे से बताया है. 28 मार्च को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे लेख में मुखर्जी कहते हैं,

”पिछले 3 दशकों में भारत ने अलग अलग तरह की साझेदारियां करते हुए अपनी स्वायत्ता को बनाए रखा और विदेश नीति में अपने विकल्पों को खुला रखा. भारत में सबसे ज़्यादा आयात होता है चीन से. भारत सबसे ज़्यादा निर्यात करता है अमेरिका को. सबसे ज़्यादा हथियार लेता है रूस से. सबसे ज़्यादा तेल लेता है सऊदी अरब और इराक से. और सबसे ज़्यादा गैस लेता है कतर से.”

ये सब करने का आत्म विश्वास भारत में आ पाया, इसके पीछे भारतीय विदेश सेवा का अर्जित अनुभव है, जो पिछले 75 सालों में तैयार हुआ. हाल के दिनों में भारत की विदेश नीति ने किस तरह मज़बूती का परिचय दिया है, ये कुछ उदाहरणों से समझते हैं.

पहला उदाहरण – यूक्रेन पर रूस का आक्रमण

रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण अचानक नहीं किया था. उसने महीनों लगाकार यूक्रेन की घेराबंदी की थी. और तभी से पश्चिमी देश लगातार रूस को निशाने पर ले रहे थे. भारत के लिए असहजता यहीं से शुरू हो गई थी. विदेश मामलों पर नियमित रूप से लिखने वाले स्तंभकार सी राजा मोहन ने 23 फरवरी 2022 को इंडियन एक्सप्रेस पर छपे अपने लेख में कहा था,

”जैसे-जैसे यूक्रेन पर युद्ध के बादल घिर रहे हैं, राजनयिक स्तर पर भारत के ”बैलेंसिंग एक्ट” पर फोकस बढ़ता जा रहा है. भारत न रूस को यूक्रेन पर आक्रमण करने के खिलाफ चेता पा रहा है और न ही यूक्रेन की संप्रभुता के पक्ष में बयान दे पा रहा है. जब 1956 में रूस ने हंगरी पर हमला किया था, और जब 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया था, तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ”

तो रूस को लेकर भारत का असमंजस नया नहीं है. इस बार जब भारत से रूस की आलोचना करने को कहा गया, तो भारत ने यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों का हवाला दिया. भारत को इनकी सकुशल वापसी के लिए रूस और यूक्रेन, दोनों का साथ चाहिए था. जब छात्र लौट आए, तो भारत को फिर एक नैतिक असमंजस में डालने की कोशिश हुई. भारत ने लगातार शांति की अपील की. लेकिन रूस के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा. कारण बताया गया कि भारत से रूस के गहरे सामरिक रिश्ते हैं. रक्षा सहयोग है. हमारी सेना के पास अधिकतर हथियार रूसी मूल के हैं. इसीलिए हम रूस के खिलाफ नहीं जा सकते.

यहां एक सवाल उठता है कि हमने रूस से ही इतने हथियार क्यों लिए? और अगर रूस वाली दुकान में अब कोई समस्या है, तो क्या हम कहीं और से हथियार नहीं ले सकते? आखिर पैसा तो अपना ही है.

इस सवाल का जवाब छुपा है भारत की रक्षा खरीद नीति में. भारत सरकार रक्षा खरीद भी वैसे ही करती है, जैसे वो सड़क का ठेका निकालती है. यहां सिक्का चलता है L1 बिडर का. माने लोएस्ट बिडर.

मान लीजिए भारत को एक बंदूक खरीदनी है. इसके लिए दुनिया भर की कंपनियां ठेका भरेंगी. इसमें यूरोप और अमेरिका की कंपनियां भी आएंगी और रूसी कंपनियां भी. अब चूंकि रूसी सामान हमेशा पश्चिमी कंपनियों के सामान से सस्ता है, ठेका रूसी कंपनियों को चला जाता है. भारत की सेना के पास रूसी हथियारों का ज़खीरा ऐसे ही तैयार हुआ.

दूसरा कारण ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पूरी दुनिया में सिर्फ रूस ही है, जिसने रक्षा से लेकर अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत से दोस्ती की, तो उसे सही मायनों में निभाया भी.

यूक्रेन पर रूस का आक्रमण उसके विस्तारवादी मंसूबों का परिणाम है. भारत ने हमेशा विस्तारवाद पर देशों की संप्रभुता को तरज़ीह दी है. बावजूद इसके, भारत रूस से दोस्ती नहीं तोड़ना चाहता. इसके कारण क्या हैं, ये हम आपको बता चुके हैं.

यहां एक बात समझने वाली है. रूस से दोस्ती का फायदा हमें तेल खरीदने में मिल रहा है, ये लाइन आपने सुनी होगी. ऐसे में ये सवाल लाज़मी है कि अगर रूस सस्ता तेल दे रहा है, तो पेट्रोल का दाम रोज़ ऊपर क्यों जा रहा है. तो उसका जवाब ये है कि रूस से लाया जा रहा तेल जमा हो रहा है भारत के स्ट्रैटिजिक रिज़र्व्ज़ में. ये वो तहखाना है, जिसे भारत किसी आपातकाल में ही इस्तेमाल करना चाहता है. मिसाल के लिए युद्ध. इसीलिए आपको रूस से आ रहे सस्ते तेल का लाभ नहीं मिल रहा. फिर एक दूसरी बात भी है. रूस सस्ता तेल ज़रूर बेच रहा है, लेकिन भारत के कुल आयात में उसका हिस्सा अभी भी छोटा है. फिर हम ये तेल कितने दिनों तक खरीद पाएंगे, ये सब निर्भर करेगा रूस-यूक्रेन के बीच बनते-बिगड़ते समीकरणों पर.

रूस से अब चलते हैं श्रीलंका. श्रीलंका भारत से बिलकुल सटा हुआ है. सदियों से दोनों देशों के लोगों के बीच संबंध हैं. जब भारत और श्रीलंका दोनों अंग्रेज़ों के गुलाम थे, तब भारत से तमिल समुदाय के लोग श्रीलंका जाकर बसे. आधुनिक समय में इसी तमिल समुदाय के चलते भारत और श्रीलंका का भविष्य साथ नत्थी हुआ.

तमिल समस्या को लेकर भारत ने श्रीलंका में शांति सेना भेजी थी. तो इसी शांति सेना के डर से LTTE ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करवा दी थी. आज भी तमिलनाडु में हज़ारों श्रीलंकन तमिल शरणार्थी रहते हैं.

2007 के बाद जब श्रीलंका की सेना ने तमिल उग्रवादियों के खिलाफ अपना अभियान तेज़ किया, तब भारत ने श्रीलंका की सेना की खूब मदद की और लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंच गई. इसके बाद से भारत लगातार श्रीलंका की मदद करता आ रहा है. खासकर तमिल इलाकों में भारत सरकार के सहयोग से योजनाएं चलाई जा रही हैं.

लेकिन भारत के पैरों के नीचे से ज़मीन धीरे धीरे खिसक रही थी. श्रीलंका, चीन की तरफ झुकने लगा. इसका सबसे बड़ा सबूत था हंबनटोटा बंदरगाह. बात ये है कि 2005 में महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति बने. उनका चीन की तरफ झुकाव था. वो अपने इलाके हंबनटोटा में एक बंदरगाह बनवाना चाहते थे. न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने पहले भारत की तरफ़ हाथ बढ़ाया. भारतीय कंपनियों ने इस प्रोजेक्ट में दिलचस्पी लेने से मना कर दिया. इसके बाद महिंदा गए चीन के पास. चीन के बैंकों ने बंदरगाह के लिए कर्ज़ दे दिया.

चीनी बैंकों ने इसी तरह के ढेर सारे कर्ज़ दिए और अब श्रीलंका पर इतना कर्ज़ है कि उसके पास ब्याज चुकाने के ही पैसे नहीं बचे हैं. श्रीलंका भी भारत की तरह ईंधन का आयात करता है. इसीलिए पैसों के अभाव में वो ईंधन का आयात नहीं कर पा रहा. और इसी के चलते देश में महंगाई उस स्तर पर है कि लोग श्रीलंका छोड़ने लगे हैं. ये आर्थिक शरणार्थी हैं, जो भारत आ रहे हैं. ऐसे समय में श्रीलंका ने एक बार फिर भारत की तरफ देखना शुरू किया है. भारत ने फरवरी और मार्च 2022 में श्रीलंका को 18 हज़ार 145 करोड़ की मदद देने का ऐलान किया है. तकरीबन साढ़े सात हज़ार करोड़ की मदद और देने पर विचार चल रहा है.

भारत, श्रीलंका की वायुसेना को विमान दे रहा है, नौसेना को जहाज़ दे रहा है, स्कूलों में कम्प्यूटर लैब भी बनवा रहा है. इस तरह के ढेर सारे सहयोग कार्यक्रमों पर रज़ामंदी हुई है. बीते हफ्ते जब विदेशमंत्री डॉ एस जयशंकर Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation के सम्मेलन के लिए कोलंबो में थे, तब वो श्रीलंका के राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से मिले और आपसी सहयोग पर दोनों के बीच बात हुई.

इन सारी मुलाकातों से ये संकेत मिला कि श्रीलंका अपने बुरे दौर में भारत को याद कर रहा है. और भारत अपनी पुरानी दोस्ती निभाने के लिए कदम उठा रहा है. ऐसे में एक उम्मीद बंधी है कि श्रीलंका चीन के प्रभाव से निकलकर दोबारा भारत की तरफ आए.

यूक्रेन और श्रीलंका के बाद अब चलते हैं मालदीव. हिंद महासागर को भारत का बैकयार्ड कहा जाता है. और इसी बैकयार्ड में पड़ता है मालदीव. भारत और मालदीव के बीच संबंध हमेशा अच्छे रहे हैं. 1988 में मौमून अब्दुल गयूम का तख्तापलट होने लगा, तब उनकी मदद भारत ने की. 2004 में हिंद महासागर में सूनामी की तबाही आई, तब भारत ने मालदीव की मदद की. 2014 में मालदीव में पानी साफ करने के कारखाने में आग लगी, तब भारत ने मालदीव को पानी भी दिया.

लेकिन सरकारें बदलने के साथ-साथ संबंधों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है. राजनीति में सारे खिलाड़ी या तो भारत या चीन के समर्थक होते हैं, या बताए जाते हैं. इधर कुछ दिनों से भारत – मालदीव संबंध लगातार मज़बूत हो रहे हैं. 2012 में मालदीव ने जिस तरह GMR को बेदखल किया था, वो बात अब पुरानी हो गई है. इसीलिए हाल ही में जेल से बाहर आए पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन चाहते हैं कि मालदीव भारत से संबंधों पर लगाम लगाए. मालदीव में जो INDIA OUT कैंपेन चल रहा है, उसके पीछे अब्दुल्ला यामीन जैसे लोग भी हैं. कहना न होगा, कि अब्दुल्ला यामीन को चीन समर्थक माना जाता है.

इस सब को साधने के लिए 26 मार्च को एस जयशंकर खुद मालदीव गए थे. वहां डॉ जयशंकर मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद से मिले. पहले से चल रहे सहयोग को रिव्यू किया और टूरिज़म से लेकर रक्षा के क्षेत्र में और समझौते कर लिए. INDIA OUT कैंपेन के लोग जयशंकर का विरोध करना चाहते थे, लेकिन जयशंकर की यात्रा निष्कंट पूरी हुई. 27 मार्च को मालदीव में नेशनल कॉलेज ऑफ पुलीसिंग एंड लॉ एनफोर्समेंट का धूमधाम से उद्घाटन हुआ. ये भी भारतीय सहयोग से ही बना था. जिस तरह का स्वागत जयशंकर को मिला, और मालदीव की सरकार ने जिस तरह विरोधियों को दरकिनार किया, वो यही बताता है कि मालदीव को लेकर भारत का प्लान ऑन-ट्रैक है.

आपने विशेषज्ञों को सुन लिया. अब हमारी बात सुनिए. भारतीय विदेश नीति सफलता की राह पर है. ये हमारे लिए गौरव की बात है. हम उम्मीद करते हैं कि भारत इसी तरह अपना प्रभाव बढ़ाता रहे. लेकिन एक बात पर हम सबका ध्यान होना बहुत ज़रूरी है. कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय पटल पर तभी मज़बूत हो सकता है, जब वो आंतरिक रूप से मज़बूत हो. उसके समाज में समरसता हो, बंधुत्व का भाव हो. तभी आप खुद को ताकतवर कह पाएंगे.

विदेश नीति से अब आते हैं घरेलू राजनीति की तरफ. कश्मीर फाइल्स फिल्म जब से आई है, चर्चा में बनी हुई है. एक चर्चा दिल्ली विधानसभा के भीतर भी हुई थी. तब सीएम अरविंद केजरीवाल ने जो बयान दिया वो काफी वायरल हुआ. फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांग पर उनकी तरफ से कहा गया था कि फिल्म को यूट्यूब पर डाल दीजिए, सब देख लेंगे.

केजरीवाल ने बीजेपी पर तीखे हमले भी किए थे. उसके बाद से बीजेपी और आम आदमी पार्टी सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक आमने-सामने है. कल तो दोनों ही पार्टी के कार्यकर्ता प्रदर्शन करते हुए एक-दूसरे के सामने झड़प की स्थिति में आ गए. बीजेपी केजरीवाल के बयान के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थी तो आप के कार्यकर्ता केजरीवाल पर किए गए दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्ता की टिप्पणी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे.

बीजेपी के ताबड़तोड़ हमलों के जवाब में सीएम अरविंद केजरीवाल ने खुद को कश्मीरी पंडितों का हितैषी बताया. उन्होंने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में दावा किया कि उन्होंने 233 विस्थापित कश्मीरी पंडितों को सरकारी नौकरी दी. दावा किया कि वो लंबे से संविदा पर काम कर रहे थे, कच्ची नौकरी थी, जिसे पक्का केजरीवाल सरकार ने किया. इसके जवाब में एक चिट्ठी खूब वायरल हुई.

चिट्ठी गवर्नमेंट स्कूल एसोसिएशन टीचर्स माइग्रेंट के हवाले से लिखी गई. तारीख 28 मार्च. लेकिन दिलचस्प ये रहा कि चिट्ठी में किसी भी तरह का हस्ताक्षर या मुहर नहीं थी. चिट्ठी में सीएम केजरीवाल के दावे की निंदा की गई. इसमें दावा किया गया कि केजरीवाल सरकार ने कश्मीरी पंडितों को नौकरी देने के बजाय उनकी राह में रोड़े अटकाए. तीन-तीन बार कोर्ट जाकर नियुक्ति में व्यवधान पैदा किए. नौकरी तो उन्हें कोर्ट के आदेश मिली. अब सवालों की दिशा फिर केजरीवाल और उनके दावों की तरफ घूम गई.

उधर से कोई जवाब आता, उससे पहले एक और चिट्ठी आ गई. पहली चिट्ठी बीजेपी समर्थकों ने खूब वायरल की तो दूसरी चिट्ठी आप समर्थक ले उड़े. ये चिट्ठी भी गर्वनमेंट स्कूल टीचर्स एसोसिएशन (माइग्रेंट) की तरफ से ही लिखी गई और पिछली चिट्ठी को इसमें फेक बताया गया. चिट्ठी 29 मार्च यानी आज के दिन लिखी गई. इसमें 5 कश्मीरी पंडित शिक्षकों के हस्ताक्षर भी हैं.

पिछली चिट्ठी को जिस दिलीप भान के नाम से लिखा गया, उस दिलीप भान को भी एसोसिएशन ने पहचानने से इनकार कर दिया. लिखा इस नाम का कोई भी व्यक्ति हमारे एसोसिएशन का हिस्सा नहीं है, ना ही वो इन्हें जानते हैं. साथ ही ये भी लिखा गया कि उनको नौकरी केजरीवाल सरकार के दौरान 2017 में मिली. कुछ देर की खामोशी और इस चिट्ठी के आने के बाद आम आदमी पार्टी की तरफ से प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई. बीजेपी को आड़े हाथों लिया

जबकि बीजेपी आप के आरोपों से इतर अपने स्डैंट पर कायम है. पार्टी के बड़े नेता अब भी सीएम केजरीवाल से माफी की मांग कर रहे हैं

तो कश्मीरी पंडितों के दुख पर राजनीति का सिलसिला बदस्तूर जारी है. इस मामले में और अपडेट्स आएंगे, तब उनकी जानकारी हम आपको ज़रूर देंगे.


शिवसैनिकों ने उद्धव ठाकरे की बुराई करने पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ देख निकले आदमी को पीटा?

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