वेदमनूच्याचार्योन्तेवासिनम॑नुशा॒स्ति। सत्यं॒ वद। धर्मं॒ चर। स्वाध्याया᳚न्मा प्र॒मदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्य॑वच्छे॒त्सीः। सत्यान्न प्रम॑दित॒व्यम्। धर्मान्न प्रम॑दित॒व्यम्। कुशलान्न प्रम॑दित॒व्यम्। भूत्यैन प्रम॑दित॒व्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रम॑दित॒व्यम्॥१॥
— तैत्तीरीय उपनिषद्, शीक्षावल्ली, एकादशमोऽनुवाकः
अर्थात्, वेदों के पाठन के बाद ‘अनूचान’ आचार्य अपने ‘अंतेवासी’ छात्र को आगामी जीवन में अनुशासनपूर्ण व्यवहार के लिए सूचित करते हैं– “सत्य बोलो, धर्माचरणशील रहो, स्वध्याय से मत चूको। आचार्य को उनकी इच्छानुसार उचित गुरुदक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् (गृहस्थाश्रमी बनकर) भावी पीढ़ियों की बागड़ोर न तोड़ो। सत्य, धर्म, अर्जित कौशल से कभी नहीं भटकना चाहिए। समृद्धि को कभी नहीं गॅंवाना चाहिए। वैदिक ज्ञान के विषय में स्वाध्याय और पाठन से नहीं चूकना चाहिए।”
वैदिक-उपनिषद् काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा में निहित धर्माचरण की यह प्रतिध्वनि ही भारतीय संस्कृति के बीजमंत्रों में सर्वप्रमुख है। अनादिकाल से शास्त्रों में धर्म का अध्ययन और गुरु-शिष्य परम्परा से अति निकट सम्बन्ध दिखाई देता है। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए आचार्य पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र का पुनरुद्धार किया।
पूर्व भागों में हमने देखा, कि आचार्य पाणिनि की जीवनी एवं उनके कार्य की महत्ता आज भी उतनी ही अक्षुण्ण है, जितनी प्राचीन समय में थी। पाणिनिकालीन भारत के धर्म और शिक्षा का आकलन भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होत है। आर्थिक प्रगति की राह पर तेज़ी से चल रहा वर्तमान भारत, अत्याधुनिक तकनीकी विकास को अपनाते हुए भी, अपने गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा लेते हुए अपनी सांस्कृतिक विरासत को अबाधित कैसे रखे?
इस प्रश्न के समाधान के लिए 450 ईसा पूर्व का भारत ईसवी 2021-22 के भारत के लिए प्रासंगिक संदेश दे सकता है, इस आश्चर्यजनक निष्कर्ष से आप अगले कुछ लेखों को पढ़कर सहमत हो जाऍंगे। प्रस्तुत भाग में हम ‘शीक्षावल्ली’ से प्रेरणा लेते हुए, आचार्य पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में चर्चित धर्म और धर्माचरण के मूलाधार-रूपी अध्ययन-अध्यपन की परंपरा का चिंतन करेंगे।
पाणिनिकालीन भारत में शिक्षा-पद्धति
आचार्य पाणिनि भी महान् गुरुपरंपरा की ही देन हैं। अतः ‘अष्टाध्यायी’ में तत्कालीन अध्ययन-अध्यापन की परंपरा की अनेक प्रतिध्वनियाँ स्वाभाविक रूप से दिखाई देती हैं। अष्टाधायी-स्थित साक्ष्यों से हमें यह संदेश मिलता है कि भारतीय परंपरा के अनुरूप सात-आठ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होने के बाद नव-ब्रह्मचारी का विद्यारंभ होता था।
सूत्र “तदस्य ब्रह्मचर्यम् 5।1।94॥” से ज्ञात होता है कि ब्रह्मचर्य के संस्थान को अत्यंत महत्व प्राप्त था। “विद्ययोनिसम्बन्धेभ्यः वुञ् ४।३।७७॥” सूत्र से यह ज्ञात होता है कि आचार्य पणिनि गुरु-शिष्य के विद्यासंबंध को रक्त (योनि) या गोत्र (संबंध) के समकक्ष मानते थे। विद्यार्थी अपने-अपने आचार्य के घर में (संस्कृत में ‘अंते’) निवास करते थे (‘वासिन्’), अतः वे “अंतेवासी” कहलाते।
अथर्ववेद में यह आज्ञा की गई है कि आचार्यों को अपने छात्रों को स्वपुत्र से अभिन्न मानने का उत्तरदायित्व है। अतः पणिनि काल में अध्येता और अध्यापक का नाता अत्यंत पवित्र होता था। आज के “कमर्शियल एजुकेशन” के सदर्भ में यह एक महत्वपूर्ण संदेश है।
आज की ही तरह, अलग-अलग आचार्य अपने-अपने विषयों में प्रवीण होते थे। किसी भी विषय को पढ़ाने वाले शिक्षक को “आख्याता” का नाम प्राप्त था। जो वेदांग-ज्ञान के पाठन में पारंगत आचार्य थे, वे “अनूचान” कहलाते (अङ्गाध्यायी अनूचानः, बोधायन गृह्यसूत्र, 1।4॥)। तत्पश्चात् होते “श्रोत्रीय”, जो वैदिक यज्ञयाग आदि के विधि पढ़ाते।
बिल्कुल आज के विश्वविद्यालयों की तरह, शिक्षकों की वरीयता के निश्चित मापदंड होते थे। सूत्र 2।1।65॥ में निहित उल्लेख से ज्ञात होता है कि शिक्षकों की वरीयता से उनके संबोधन होते थे। आज जिसे “प्राध्यापक” या “प्रोफेसर” कहते हैं, वह उन दिनों “आचार्य” कहलाते।
“आचार्य” पद की गरिमा का स्पष्ट स्वर इस बात से सुनाई देता है, कि आचार्य-पद के अधिकारी वही शिक्षक कहलाते जिनके गुरुकुल में “अंतेवासी” छात्र निवास करके पढ़ते। उपनीत नव-छात्रों के सांगोपन का उत्तरदायित्व आचार्य लेते। आचार्यों के बाद, “प्रवक्ता” उस शिक्षक को कहा जाता, जो किसी आचार्य के निरीक्षण में अलग-अलग धर्मग्रन्थ पढ़ाता।
वर्तमान काल में “सहायक प्राध्यापक” या “असिस्टंट प्रोफेसर” का पद इसी के समान प्रतीत होता है। अंततः आधुनिक “लेक्चरर” जैसे ही, उस समय “अध्यापक” या “उपाध्याय” वे होते, जो गणित, ज्योतिष, काव्यशास्त्र आदि धर्मशास्त्रेतर विज्ञान पढ़ाते।
विद्यार्थी के जीवन में प्रमुखतया तीन चरण होते थे। आज की मान्यता के अनुरूप ही, सातवें-आठवें वर्ष उपनयन संस्कार किया जाता था, जिसके पश्चात् नव-छात्र को “माणवक” कहा जाता। 12 वर्ष अध्ययन के अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में छात्रों को “माणवक”, मध्यम अवस्था में “अंतेवासी”, अध्ययन के समापन (5।1।112॥) के साथ “स्नातक” (‘शतपथ ब्राह्मण’ ग्रंथ में स्नातक का विवरण है) और जगह-जगह घूमकर अधिक विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करनेवाले स्नातक विद्वान् “चरक” कहलाते थे। यह “चरक” आधुनिक “रिसर्च स्कॉलर” से समान प्रतीत होते हैं, जो ज्ञानार्जन के लिए अलग-अलग जगहों का भ्रमण करते हैं।
प्राचीन भारत में स्त्री-शिक्षा और स्त्री-शिक्षिकाएँ
उल्लेखनीय बात यह है कि प्राचीन भारत में बालिकाओं का शिक्षण सर्वत्र प्रचलित था। उस समय छात्राओं को भी उतने ही अधिकार प्राप्त थे, जितने किसी भी पुरुष छात्र को मिलते। यहाँ तक कि संस्कृत व्यकरण, वेदाध्ययन जैसे विषयों में छात्राओं के सहभागी होने का अष्टाध्यायी (4।1।14॥, 4।1।63॥), वार्तिकापाठ (इन दो सूत्रों पर वार्तिक) और पातंजल महाभाष्य (2।225॥) में असंदिग्ध संकेत मिलता है। अतः उपनिवेशवादियों द्वारा फैलाई गई “स्त्रियों को प्राचीन भारत में शिक्षा से दूर रखा जाता” यह भ्रान्ति पूर्णतः निराधार है।
इतना ही नहीं, स्त्रियाँ आचार्य-पद भी विभूषित करती थीं। पातंजल महभाष्य (२।२३०॥) में तो एक महिला आचार्या “औदमेघा” का नाम “औदमेघ्यायाश्छात्रा औदमेघाः” (आचार्या औदमेघा के छात्रसमूह को “औदमेघ” कहा जाए) इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया गया है।
व्याकरण की रचनाओं से हटकर देखा जाए, तो संस्कृत भाषा से जुड़ी नाटक-परम्परा में अत्यन्त विदुषी, शास्त्र पारंगत नायिकओं की भरमार है। अतः यह प्रमाणित है, कि प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा और पाण्डित्यपूर्ण विषयों में महिलाओं का सहभाग सर्वत्र था।
सबसे आश्चर्यकारक बात तो यह है कि आचार्य पाणिनि के काल में महिलाओं की शिक्षा का इतना ध्यान रखा जाता, कि छात्राओं के लिए विशेष रूप से “होस्टलों” का भी प्रबंध होता था। सूत्र “छात्र्यादयः शालायाम् 6।2।86॥” से स्पष्ट जान पड़ता है कि उस काल में “छात्री” शब्द सर्वज्ञात था, और इन छात्रियों के निवास को “छात्रिशाला” नाम प्राप्त था।
इसके भी आगे, पातंजल महभाष्य छात्राओं को “अध्येत्री” एवं नवीन छात्राओं को “माणविका” के नाम से संबोधित करता है (4।193॥, 2।249॥)। इन उदाहरणों से यह स्वीकार करना पड़ता है, कि बालकों के लिए विद्यारंभ में जो-जो संस्कार निर्दिष्ट हैं, वे सामान्यतः लड़कियों के लिए भी रहे होंगे।
हाल ही में “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे अभियानों के कारण नारी शिक्षण-सशक्तिकरण के बढ़ते महत्व के संदर्भ में यह बात अत्यंत रोचक है, कि इतिहास के पन्ने पलटने पर हमें सर्वत्र “प्रगतिशीलता” और स्त्रियों के साथ सन्मानपूर्वक बर्ताव का दृश्य दिखाई देता है।
पाणिनिकालीन भारत हमें महिला सशक्तिकरण का एक संतुलित मार्ग दिखाता है, जो मध्ययुग में भारत पर थोपी गई अन्य संस्कृतियों की धारणा के बिल्कुल विपरीत है। सनातन भारतीय परंपरा अपने दर्शन में नारी को सृष्टि का अनन्य एवं अविभाज्य अंग मानता है। भारतीय दर्शन में नारी का स्थान सामाजिक जीवन में अनूठा मगर पुरुषों के समकक्ष है, यही भविष्योन्मुख संदेश हमें हमारा गौरवशाली इतिहास देता है।
प्राचीन शिक्षा-पद्धति में रचनात्मक शोधकार्य (“रिसर्च”) के अष्टाध्यायी में संकेत
आचार्य पाणिनि के काल तक गुरुपरंपरा से अनुप्राप्त साहित्य इतना व्यापक प्रमाण में उपलब्ध था, कि स्वतंत्र विषयों के रूप में इस साहित्य का अध्ययन किया जाने लगा। अष्टाध्यायी के सूत्रों में इनमें से कुछ वर्णित हैं। वेदविद्या, कल्पशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र और नाना प्रकार की कथाएँ-गाथाएँ इसमें सम्मिलित हैं।
पातंजल महाभाष्य इनकी सूची को और भी बढ़ा देता है, क्योंकि उसमें पक्षिविद्या, अंगविद्या, गोलक्षणविद्या, अश्वशिक्षा जैसी कई विद्याओं का उल्लेख है। स्वाभाविक है कि विद्या के इस विस्तार के कई मूलग्रन्थ और उनके रचयिता रहे होंगे, जिनके कठिन परिश्रम के कारण ही विज्ञान का उत्थान संभव हो सका।
इन शास्त्रों की सिद्धि के संदर्भ में, प्रथम भाग में हमने देखा, कि आधुनिक काल के ही अनुरूप, किसी भी रचना को तभी प्रमाणित शास्त्र माना जाता, जब वह रचना वाद-विवाद (“review”) में अपने सभी आलोचकों को हराकर सर्वाधिक सुविहित सिद्ध हो।
यह शास्त्रार्थ “शास्त्रार्थ -सभा” में होता था। इन सभाओं में अलग-अलग गुरुकुल-वृंदों (“चरणों”) की परिषद् (आधुनिक परिकल्पना में किसी विश्वविद्यालय के “सीनेट”) के अनुभवी विद्वान् आचार्य समीक्षक की भूमिका निभाते थे। अष्टाध्यायी भी ऐसे ही एक शास्त्रार्थ में विजयी होकर व्याकरणशास्त्र का प्रमाण-स्रोत बनी।
अतः स्वाभाविक है कि अष्टाध्यायी में भी सभा और परिषद् के अलग-अलग पहलुओं क उल्लेख है। सूत्र 1।3।36॥ में सभा के द्वारा सम्मानित किए जाने का उल्लेख है। पातंजल महाभाष्य (1।189॥) भी इसका समर्थन करता है। आधुनिक विश्वविद्यालयों के “सीनेट” की ही तरह, उस समय परिषद् के कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण अपने चरणस्थ गुरुकुलों (आधुनिक रूप में, विश्वविद्यालय के अधीन कॉलेजों) के छात्रों के पाठ्यक्रम को निर्धारित करना था।
साथ-ही-साथ, अपने गुरुकुलों में निर्मित नव-रचनओं की समीक्षा का कार्यभार और विद्वानों के एक औपचारिक संगठन का भी कार्य यह परिषद् निभाती थी। विद्वत्-परिषदों का अपने-अपने वैदिक चरणों (शाखाओं, यानी एक प्रकार से वैदिक ‘शैलियों’) की प्रसिद्धि बढ़ाने का भी उत्तरदायित्व था। अन्य प्रकार की परिषदें (राजपरिषद्, मंत्रिपरिषद्) तत्कालीन राजसत्ता के साथ सहयोग करते हुए प्रशासन को सुचारु बनाए रखने में भूमिका निभाती थीं।
परिषद् के समक्ष प्रस्तुत नवीन रचनाओं को ‘कृत’ कहा जाता था (4।3।87॥), और यदि यह नवरचना किसी नए विषय का बोध करानेवाली होती थी, तो उस विषय को ‘उपज्ञात’ (4।3।115॥) कहा जाता । किसी भी उपज्ञात ग्रंथ को राजसभा में व्यापक परीक्षण के योग्य समझे जाने के लिए उसकी रचना के कुछ नियम होते थे, जो सभी नियम अष्टाध्यायी की रचना में भी पाले गए हैं।
वादशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार, किसी भी उपज्ञात ग्रंथ में सही हेतु, उपदेश (रचयिता द्वारा दर्शाए गए विधि), अपदेश (रचयिता के मत के विरुद्ध प्रचलित मत जिनका खण्डन करन है), संबंधित कार्य (किसी विषय पर अन्य के मत), समस्या (दुविधाओं क निरसन), वक्याधार,अनुमत, अतिवर्णन, निर्वचन (किसी भी संज्ञा से निकलने वाले तर्क का उपयोग), स्वसंज्ञा ( नई संज्ञाओं का निर्माण), पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, अतिदेश, विकल्प इतने सभी चीज़ों की उपस्थिति अनिवार्य है। उस समय यह ग्रंथरचना के कठिनतम मानक केवल अष्टाध्यायी ही नहीं, बल्कि कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे दूसरे विषय-परक ग्रंथों के लिए भी लागू पड़ते थे।
अष्टाध्यायी हो या अर्थशास्त्र या नाट्यशास्त्र, उपर्युक्त वर्णन पढ़कर आप सहमत होंगे, कि किसी भी उपज्ञात ग्रंथ की रचना आधुनिक परिवेश में “रिसर्च थीसिस” जैसी ही प्रतीत होती है। और तो और, आज भी पीएचडी के अध्ययन में प्रयोग में लाए जानेवाले कई वैचारिक पहलू तब भी उपस्थित थे, यही निष्कर्ष हमें मान्य करना पड़ता है।
पाणिनिकालीन भारत में पुराणेतिहास और लोककलाओं का प्रशिक्षण
वेदविज्ञान के कई ग्रंथ (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्) आचार्य पाणिनि को ज्ञात थे, इसका प्रमाण अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रों से हमें मिलता है। वेदविज्ञान से परे, यह याद करना चाहिए कि उस समय संस्कृत सामान्य रूप से लोगों में बोली जाने वाली भाषा थी– अर्थात्, संस्कृत में रचे गए इतिहास ग्रंथों और उनकी आश्रित लोककलाओं का भी उतना ही महत्त्व था। वेदविद्या जैसे ही, इनका भी अध्ययन-अध्यापन होता था। प्रसिद्ध पौराणिक प्रसंगों पर विद्वानों द्वारा ‘गाथाएँ’ रची जातीं थीं। इन गाथाओं का, वर्तमान ‘कथावाचन’ जैसे ही कार्यक्रमों में मंचन होता था।
पाणिनि जनांतिक आचार्य थे। उन्होंने अपना व्याकरणशास्त्र जनसामान्य में प्रचलित संस्कृत बोली को ही एक अनुशासित, शुद्ध रूप प्रदान करने की इच्छा से लिखा। अतः, अष्टाध्यायी में स्पष्ट रूप से गाथाकारों, नाटकों, नटों, कहानियों, आख्यानों और ललित रचनाओं का हमें दर्शन होता है। 4।3।110॥ और 4।3।111॥ इन दो सूत्रों में ‘नटसूत्रों’ की प्राचीन परंपरा का उल्लेख है, जिससे हमें यह स्पष्ट ज्ञान होत है कि संस्कृत नाटकों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है।
पाणिनीय अष्टाध्यायी के कई और सूत्र (1।4।29॥, 3।2।21॥) यह भी विदित कराते हैं कि नर्तनशाला में नाटकों का प्रशिक्षण दिया जाता था। 3।2।21॥ इस सूत्र में ‘नान्दिकार’ शब्द आया है, जिससे यह भी जानकारी मिलती है कि आज ही की भाँति, तब भी नाटकों का प्रारंभ नान्दी गीत से शुरू होता था। इसके बिल्कुल विपरीत आज इंटरनेट पर यह जानकारी दी जाती है, कि संस्कृत नाटकों का इतिहास बौद्ध साहित्यकार अश्वघोष से ईसवी 100 के करीब शुरू हुआ। ऊपर दिए गए प्रमाणों को देखते, यह ‘जानकारी’ एक तर्कहीन भ्रांति ही है, ऐसा कहा जा सकता है।
संस्कृत नाटकों की इस परंपरा में ‘भास’ नामक महाकवि सबसे प्रथम नाटककार हैं, जिनकी कृतियाँ आज भी उपलब्ध हैं। मेरा कई कारणों के चलते मानना है, कि वे आचार्य पाणिनि के पूर्ववर्ती थे। भास की रचनाओं में प्रभु श्रीराम के इतिहास पर आधारित तीन नाटक सम्मिलित हैं। आचार्य पाणिनि भी “केकय” और “कैकेयी” का उल्लेख करते हैं। पातंजल महाभाष्य में “साकेत” उर्फ अयोध्या का स्पष्ट नाम प्रकाशित है।
आचार्य पाणिनि के कुछ ही दशकों बाद रचे गए कौटिल्य अर्थशास्त्र में नटों को “कुशीलव” कहा गया है। यह “कुशीलव” नटसमूह अत्यंत प्राचीन काल से रामलीला का मंचन करते आया है। पाणिनि “आख्यान” शब्द (6।2।103॥) जानते थे। यह बात उल्लेखनीय है कि महाभारत के वनपर्व में भी प्रभु राम की संक्षिप्त कथा “रामोपाख्यान” के नाम से दर्ज है।
अतः यह अनुमान लगाना असंगत नहीं कि पाणिनि काल से ही जनसामान्य में रामकथा का और नाट्यमंच पर रामलीला का प्रचलन है। इसके समर्थन में एक और साक्ष्य है, कि पाणिनि के बाद रामकथा पर आधारित संस्कृत की एक विशाल नाट्यसृष्टि देखने को मिलती है। इसके मूल निश्चित ही अत्यन्त प्राचीन होंगे।
महाभारत के विषय में तो आचार्य की रचनाएँ निःसंशय जनकारी देती हैं। सूत्र 6।2।38॥ में महाभारत ग्रंथ का नाम सहित उल्लेख प्राप्त है, जब कि वासुदेव, अर्जुन (4।3।98॥) एवं युधिष्ठिर (8।3।95॥) का नाम सहित उल्लेख है। अतः पाणिनि महाभारत से परिचित थे, यह विधान संशय का आस्पद ही नहीं है। इससे यह पुष्टि होती है, कि हमारे पुराणेतिहास की परम्परा भी सहस्राब्दियों से अविरल रूप से चली आ रही है, जिसके उत्तराधिकारी हम हैं। भविष्य की होड़ में इसे अबाधित रूप से संजोना हमारा कर्तव्य है।
इतर काव्यों का भी अष्टाध्यायी में उल्लेख है। यह काव्य दुर्दैव से काल की आड़ में लुप्त हो चुके हैं, अतः इनकी बरीकियाँ हमें ज्ञात नहीं। इन ग्रंथो के “शिशुक्रंदीय”, “यमसभीय” और “इंद्रजननीय” यह नाम मात्र शेष रह गए हैं ।
तैत्तीरीय उपनिषद् के आदेशनुसार, “अनूचान”, “अंतेवासी”, “प्रवचन” और “स्वाध्याय” के दर्शन करने के बाद, अगले दो भागों में हम “धर्मं चर” और “धर्मान्न प्रमदितव्यम्” की अधिक जानकारी के लिए पाणिनिकालीन भारत की धार्मिक मान्यताओं का दर्शन करेंगे ।
क्रमशः
निखिल नाईक विद्युत अभियांत्रिकी के शोध छात्र हैं। वे भू-राजनीति एवं भारत की प्रगति गाथा में रुचि रखते हैं।
संबंधित कड़ियाँ और संसाधन
- “India as known to Panini”, Dr. Vasudev Sharan Agrawal, University of Lucknow, 1953
- “The Kautiliya Arthasastra (3 Vols.) (vol.1 in Sanskrit, vols. 2 & 3 in English)”, by Dr. R. P. Kangle, 2010
- “Bhasa Nataka Chakram”, ed. By Dr. Sudhakar Malviya, Chowkhamba Krishnadas Academy, Varanasi.
- “Vasudeva Krishna and Mathura”, by Dr. Meenakshi Jain, Aryan Books International, October 2021.
- https://www.ashtadhyayi.com
- “Taittiriya Upanishad”, translated by Swami Sharvananda, Ramakrishna Math, 1921.