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Princely states of India and freedom movement nodakm – भारत की रियासतें और आज़ादी का आंदोलन | – News in Hindi

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Princely states of India and freedom movement nodakm – भारत की रियासतें और आज़ादी का आंदोलन | – News in Hindi

जैसे-जैसे भारत की आजादी की परिस्थितियां करीब आती जा रही थीं, वैसे-वैसे नये बनने वाले भारतीय गणराज्य में रियासतों की भूमिका को लेकर पेचीदा सवाल उभरने लगे थे. भारत की आजादी की वार्ता के लिए मेज पर कई पक्ष थे, उनमें रियासतें भी अहम पक्षकार थीं.

19वीं शताब्दी के मध्य तक ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत की अधिकांश रियासतों के साथ संधि कर ली थीं. इन संधियों के अनुसार रियासतों के प्रमुख या राजा अपने राज्य का भीतरी प्रशासन चलाने के लिए स्वतंत्र थे, लेकिन हकीकत में सुरक्षा और उत्तराधिकारी के चयन के मामले में वे ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गए थे.

कई राज्यों में नागरिकों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे और उन पर ‘करों’ का भारी बोझ था. वर्ष 1919 और 1935 के भारत सरकार अधिनियमों से ब्रिटिश भारत में तो कुछ लोगों को मत देने का अधिकार और शासन व्यवस्था में शामिल होने का अधिकार मिला, लेकिन रियासतों में लोगों को कोई अधिकार नहीं मिले.

बड़े राष्ट्रवादी आंदोलन और रियासतें

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में आकार लेने वाले राष्ट्रवादी आन्दोलनों (खिलाफत आंदोलन, असहयोग आंदोलन आदि) ने 1920 के दशक में, जब देश के अलग-अलग हिस्सों में राष्ट्रवादी आंदोलन उभर रहे थे. तब, रियासतों (खासकर मैसूर, हैदराबाद, बड़ौदा, इंदौर, जामनगर, काठियावाड़ आदि) में लोगों ने संगठन बनाकर आंदोलन शुरू किए.

इन्हें प्रजामंडल आंदोलन कहा गया. महात्मा गांधी रियासतों के लोगों को रचनात्मक काम, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत से जोड़ने का काम करते थे, लेकिन वर्ष 1937-38 तक महात्मा गांधी ने भी रियासतों की व्यवस्था में कोई दखल नहीं दिया. राजकोट सत्याग्रह की असफलता के बाद उन्होंने अपनी नीति बदली.

15 जुलाई 1939 को उन्होंने ‘हरिजन’ समाचार पत्र में लिखा कि रियासतों को अपने लोगों को जिम्मेदार शासन व्यवस्था स्थापित करने के लिए जनमत बनाने की स्वतंत्रता देना चाहिए. फरवरी 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में रियासतों में स्वतंत्रता के संघर्ष और आन्दोलनों को सहयोग देने का प्रस्ताव पारित किया गया, लेकिन इसके पहले वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन में भी इस पर मत बना था क्योंकि बिना रियासतों को जोड़े ‘पूर्ण स्वराज’ हासिल करना भी तो संभव नहीं था.

दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता और स्वतंत्र भारत के संविधान की निर्माण प्रक्रिया के सन्दर्भ में ब्रिटिश सम्राट की सरकार ने सुनियोजित तरीके से खुद को पंचाट (निर्णय लेने वाली इकाई) के रूप में स्थापित कर दिया था. प्रधानमन्त्री रैमसे मैकडोनाल्ड और विंस्टन चर्चिल, वायसराय लॉर्ड वावेल, पैथिक लारेंस स्टेफर्ड क्रिप्स से लेकर लॉर्ड माउंटबेटन तक सभी प्रतिनिधि हमेशा यही कहते थे कि भारत में जातिवाद के आधार पर छुआछूत और असमानता है, हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक वैमनस्य है, यहां की रियासतें अखंड भारत का हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में ब्रिटिश सरकार सभी मामलों को सुलझाए बिना यहां से अपना शासन समाप्त नहीं कर सकती.

भारत सरकार अधिनियम, 1935 में भारत को एक महासंघ के रूप में स्थापित करने का प्रावधान किया गया. इसके अनुच्छेद 6(1) में उल्लेख किया गया कि ‘कोई भी राज्य-रियासत भारतीय महासंघ में तभी शामिल माना जाएगा, जब ब्रिटेन के महामहिम सम्राट परिग्रहण संधि (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेसन) पर हस्ताक्षर कर देंगे.

इसके मुताबिक़ रियासत के राजा या प्रमुख, ब्रिटिश सम्राट की सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों और सम्राट की भूमिकाओं को स्वीकार करते हैं’. रियासतों में इतनी ताकत नहीं थी कि वे इस व्यवस्था का विरोध कर पातीं, लेकिन इन शर्तों को स्वीकार करने में देर की गई.

राजा-महाराजा तय नहीं कर पा रहे थे कि भारतीय महासंघ में रहना लाभदायक है या इससे बाहर रहना? आखिरकार 11 सितम्बर 1939 को लॉर्ड लिनलिथगो ने घोषणा की कि ‘वर्तमान अंतर्राष्‍ट्रीय परिस्थितियों से विवश होकर हमारे पास महासंघ के निर्माण की प्रक्रिया को रोकने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है’. इस तरह वर्ष 1935 का अधिनियम पूर्ण रूप में लागू नहीं हो पाया.

दूसरा विश्वयुद्ध और अधूरी आजादी का प्रस्ताव

इस बीच दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ. इस बार भारत के राजनीतिक दलों और प्रांतीय सरकारों ने निर्णय लिया कि पहले विश्व युद्ध की तरह इस बार भारत के सैनिक ब्रिटेन की तरफ से युद्ध नहीं लड़ेंगे. इस निर्णय ने ब्रिटेन को कठिन परिस्थितियों में धकेल दिया, क्योंकि ब्रिटिश भारत के सहयोग के बिना उसकी स्थिति युद्ध में उतनी मज़बूत नहीं थी.

नाजीवादी जर्मनी और जापान बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे. कांग्रेस चाहती थी कि ब्रिटिश सम्राट की सरकार भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करे, तब स्वतंत्र भारत के लोग युद्ध में अपनी भूमिका पर निर्णय लेंगे. परिस्थितियों के दबाव में ब्रिटिश सरकार ने आधी-अधूरी स्वतंत्रता के प्रस्ताव देने शुरू किये. ब्रिटेन चाहता था कि भारत स्वतंत्र होकर भी ब्रिटिश राष्ट्रमंडल (कामनवेल्थ) का हिस्सा बने.

दूसरे विश्व युद्ध की कठिन परिस्थितियों में 8 अगस्त 1940 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने प्रस्ताव (इसे अगस्त प्रस्ताव के रूप में जाना जाता है) दिया था कि ‘यदि भारत ब्रिटिश अधिराज्य (डोमिनियन) के रूप में स्वतंत्रता के लिए तैयार है, ब्रिटिश सम्राट और ब्रिटिश संसद के उद्देश्यों को अपनाना स्वीकार करता है, तो ब्रिटिश सम्राट की सरकार गवर्नर जनरल की परिषद में भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए तैयार है.

ब्रिटिश सरकार शांति और कल्याण के शासन की अपनी जिम्मेदारियां किसी ऐसी सरकार को नहीं सौंप सकती है, जिसे देश के व्यापक और ताकतवर तत्व स्वीकार नहीं करते हैं.’ यानी पूर्ण स्वतंत्रता का विकल्प नहीं दिया जा रहा था और यह साबित करने की कोशिश की जा रही थी कि भारत के राजनीतिक दल और व्यवस्था भारत को संभालने में सक्षम नहीं हैं.

उल्लेखनीय है कि भारत की स्वतंत्रता के लिए होने वाली बातचीत में अगर केवल एक ही राजनीतिक दल शामिल होता तो ब्रिटिश सम्राट की सरकार को भारत का शासन भारतीयों के हाथ में सौंपना पड़ता. इसलिए बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही ब्रिटिश सरकार ने नये पक्षों को खड़ा करना शुरू कर दिया और उन्हें स्वतंत्र पक्ष के रूप में तवज्जो दी. ये पक्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण होते गए, क्योंकि अलग-अलग वजहों से भारत के भीतर विभाजन पहले से मौजूद था.

सबसे पहले आल इंडिया मुस्लिम लीग को खड़ा किया गया और उसे एक राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित किया गया. इसके बाद जाति और बहिष्कृत समूहों की समस्या को आधार बना कर तत्कालीन राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों में टकराव बढ़ाया गया, भारत की रियासतों (जिनका अपना राज्य और शासन व्यवस्था थी और कई रियासतों की ब्रिटेन के साथ संधि थी) को भी एक विशेष स्वतंत्र इकाई के रूप में संविधान निर्माण की प्रक्रिया का पक्षकार बनाया गया.

‘अगस्त प्रस्ताव’ में वायसराय लिनलिथगो ने कहा था कि ‘इस साल की शुरुआत से मैं भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहा हूं. सम्राट की सरकार ने कांग्रेस कार्यसमिति, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की घोषणाओं का अध्ययन किया है. यह स्पष्ट है कि अभी भी राष्ट्रीय एकता का लक्ष्य हासिल नहीं हुआ है. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा से संबंधित शंकाएं भी व्याप्त हैं’.

11 मार्च 1942 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री विंस्टन चर्चिल ने हाउस ऑफ कॉमंस में वक्तव्य दिया कि ‘युद्ध मंत्रिमंडल समूह (वार कैबिनेट) ने सर्वसम्मति से भारत में राजनीतिक समाधान के लिए एक योजना को स्वीकार किया है. यह प्रस्ताव क्यों दिया गया, इसका उल्लेख चर्चिल ने अपने पहले ही वाक्य में किया – भारत के मामलों में संकट बढ़ गया है क्योंकि आक्रमणकारी जापान के विस्तार (विश्व युद्ध में जापान तेज़ी से भारत की तरफ बढ़ रहा था) से भारत के जीवन को हमें बचाना है’.

इस प्रस्ताव को 29 मार्च 1942 को वार कैबिनेट के सदस्य स्टेफर्ड क्रिप्स ने जारी किया. प्रस्ताव में कहा गया था कि युद्ध विराम होते ही नया संविधान बनाने के लिए चुने हुए निकाय का गठन कर दिया जाएगा. यदि कोई प्रांत नया संविधान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है और वर्तमान संवैधानिक स्वरूप बरक़रार रखना चाहता है और नये संविधान के तहत नहीं आना चाहते हैं तो ब्रिटिश सम्राट की सरकार इस बात के लिए भी तैयार रहेगी कि नया संविधान उन प्रान्तों को भारतीय संघ जैसी ही हैसियत प्रदान करे.

इसके साथ ही भारतीय रियासतों को संविधान सभा के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा. दो अप्रैल 1942 को कांग्रेस कार्यसमिति ने बेहद सजगता और ठोस तर्कों के साथ क्रिप्स प्रस्ताव को खारिज कर दिया. कार्य समिति के संकल्प पत्र में कहा गया कि भारत के लोग, समग्रता में, पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करते हैं.

इसके अलावा कांग्रेस भी यह बार-बार बता चुकी है कि पूर्ण स्वतंत्रता के अतिरिक्त उसे भारत के लिए कोई और स्थिति मंज़ूर नहीं है. क्रिप्स प्रस्ताव अभी के लिए कोई प्रावधान नहीं करता, जो भी होगा, वह युद्ध की समाप्ति के बाद होगा. अतः कार्यसमिति मानती है कि प्रस्ताव में भविष्य की स्वतंत्रता अन्तर्निहित हो सकती है लेकिन इसके साथ क्रिप्स प्रस्ताव में जो प्रावधान और प्रतिबन्ध उल्लिखित हैं, उनसे वास्तविक स्वतंत्रता एक भ्रान्ति, एक माया हो सकती है’.

पूर्ण स्वतंत्रता की मांग और रियासतों का प्रश्न

कांग्रेस पूरे भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रही थी, लेकिन इस प्रस्ताव में रियासतों को स्वतंत्र रहने का विकल्प देकर स्वतंत्रता को भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया था. कांग्रेस ने अपने प्रस्ताव में कहा कि ‘भारतीय रियासतों-राज्यों में रहने वाले नौ करोड़ लोगों को एक वस्तु के रूप में उपभोग के लिए उनके राजाओं के रह्मोकरम पर छोड़ दिया गया है.

यह प्रस्ताव लोकतंत्र और आत्मनिर्णय के अधिकार का निषेध करता है. संविधान सभा के लिए रियासतों के राजाओं को अपने प्रतिनिधि मनोनीत करने का अधिकार दिया गया है, इससे वहां के लोगों को अपनी बात उठाने का कोई अवसर नहीं मिलेगा. ये राज्य कई मायनों में भारत की स्वतंत्रता के विकास में बाधा बनेंगे, ये ऐसे क्षेत्र होंगे जहां विदेशी ताकतें और विदेशी सशस्त्र सेनायें मौजूद रहेंगी.

इससे न केवल राज्यों के लोगों की स्वतंत्रता ध्वस्त होगी, बल्कि शेष भारत की भी. यह प्रस्ताव संघ की शुरुआत में ही विभाजन और टकराव को प्रोत्साहित करेगा’. इसके बाद 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की घोषणा कर दी. इस संघर्ष में राजाओं-रियासतों ने कोई ख़ास भूमिका नहीं ली.

14 जून 1945 को ब्रिटिश सम्राट की सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया, जिसमें कार्यकारी परिषद में वायसराय द्वारा महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय राजनीतिक व्यक्तियों को नियुक्त करने का प्रस्ताव था.

कुल मिलाकर व्यवस्था का नियंत्रण ब्रिटिश सरकार अपने हाथ में रखना चाहती थी. कांग्रेस कार्यसमिति ने सितंबर 1945 में अखंड भारत और आत्मनिर्णय पर संकल्प प्रस्ताव पारित किया. जिसमें कहा गया कि ‘कांग्रेस अखंड भारत की स्वतंत्रता चाहती है. कांग्रेस ऐसे किसी प्रस्ताव से सहमत नहीं है, जिसमें किसी भी राज्य या क्षेत्रीय इकाई को स्वतंत्रता देकर भारत के टुकड़े करने करने का प्रस्ताव हो.

हालांकि कांग्रेस का स्पष्ट मानना है कि दबाव या किसी अनुचित तरीके से किसी राज्य/क्षेत्रीय इकाई को भारत में शामिल होने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. इसके लिए अलग-अलग इकाइयों के साथ समान विचार और सहमति बनाने के लिए प्रयास होना चाहिए’.

लेबर पार्टी का आगमन और सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया

इस बीच ब्रिटेन में लेबर पार्टी सत्ता में आ गयी और उसने भारत में संविधान निर्माण, अंतरिम सरकार के गठन और सत्ता के हस्तांतरण की प्रक्रिया को तेज़ करने की कोशिश की. इस पहल के अंतर्गत 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन योजना जारी की गई, जिसमें संविधान निर्माण की प्रक्रिया और अंतरिम सरकार के गठन की विस्तृत योजना थी.

इस योजना में कहा गया कि अब तक ब्रिटिश सम्राट की सरकार के साथ रियासतों/राज्यों के साथ सत्ता संधि आधारित रिश्ता था. ब्रिटिश भारत की स्वतंत्रता के बाद सम्राट और रियासतों के बीच का यह संधि आधारित संबंध न तो बनाये रखा जा सकता है, न ही नयी सरकार को हस्तांतरित किया जा सकता है. लेकिन रियासतों के प्रमुखों/राजाओं ने आश्वासन दिया है कि वे भारत में हो रहे विकास में सहयोग करने के लिए तैयार हैं. यह कैसे होगा, यह उनके बीच समझौता वार्ताओं से तय करना होगा.

इस योजना में कहा गया कि विदेश मामलों, रक्षा और संचार के विषय भारतीय संघ के अधीन होंगे. इसके साथ ही इन तीन क्षेत्रों की जिम्मेदारी निभाने के लिए जरूरी आर्थिक मामलों पर भी संघ का नियंत्रण होगा. इनके अतिरिक्त अन्य सभी क्षेत्र और शक्तियां प्रान्तों के नियंत्रण में होंगी. एक तरह से भारत को तीन मंडलों में बांटा गया था – अ, ब और स. पूर्वी और पश्चिमी मंडल यानी ब और स मंडल में मुस्लिम बहुल प्रांत थे और अ मंडल हिन्दू बहुल था.

लेकिन हर रियासत अपने आप में एक इकाई थी. संविधान सभा के लिए ब्रिटिश भारत के प्रान्तों से 292 प्रतिनिधि चुनाव के माध्यम से चुने जायेंगे, लेकिन रियासतों/राज्यों के लिए निर्धारित 93 प्रतिनिधि कैसे चुने जायेंगे, यह संविधान सभा की समिति और रियासतों की समझौता समिति के बीच बातचीत से तय करना होगा. चूंकि अभी रियासतों में प्रांतीय सभाएं नहीं है और चुनाव नहीं होते हैं, इसलिए वहां 93 प्रतिनिधियों के चुनाव में समय लग सकता है.

अतः संविधान सभा में रियासतों की सहभागिता में देरी हो सकती है. इसी प्रक्रिया में 12 मई 1946 को कैबिनेट मिशन ने रियासतों/राज्यों के समूह (चांसलर ऑफ चैंबर ऑफ प्रिंसेस) को प्रस्तुत किया. इसमें कहा गया था कि सत्ता संधि के माध्यम से जो सम्बन्ध ब्रिटिश सम्राट की सरकार और रियासतों के बीच थे, वे भारत की संवैधानिक व्यवस्था बनने के साथ समाप्त हो जायेंगे. रियासतों पर जो अधिकार इन संधियों से ब्रिटिश सरकार को मिले थे, वे अधिकार किसी भी सूरत में भारत सरकार को हस्तांतरित नहीं किये जायेंगे. यानी अब रियासतों को अपने पूरे अधिकार वापस मिल जाएंगे.

और, वे जिस तरह चाहें नयी व्यवस्था में ब्रिटिश भारत के साथ समझौता करें. इस तरह कैबिनेट मिशन ने सभी रियासतों/राजाओं को यह सन्देश भी दिया कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में वे शामिल हों, चाहे न हों, उन्हें आर्थिक और वित्तीय मामलों पर भारत की सरकार के साथ समझौता वार्ता करना चाहिए. बाद की सभी प्रक्रियाओं में यही कैबिनेट मिशन योजना रियासतों के विलय से सम्बंधित प्रक्रियाओं का आधार बनी.

दूसरे विश्व युद्ध से उपजी स्थितियों में ब्रिटिश सम्राट के लिए भारत में अपनी औपनिवेशिक सरकार बरकरार रखना असंभव हो गया. भारत की स्वतंत्रता की मांग गहरे तक जड़ें जमा चुकी थी. जिन्हें उखाड़ना ब्रिटिश सरकार के लिए संभव न रहा. इसी समय यानी वर्ष 1945 में ब्रिटेन में भी लेबर पार्टी की सरकार बन गयी. सितम्बर 1945 में वायसराय लॉर्ड वावेल ने भारत की स्वतंत्रता को शीघ्रता से मूर्त रूप देने की अपनी मंशा को एक सार्वजनिक वक्तव्य के माध्यम से स्पष्ट किया.

प्रक्रिया आगे बढ़ी और 4 दिसंबर 1945 को हाउस ऑफ लार्ड्स में ब्रिटेन के भारत मामलों के सचिव पैथिक लारेंस ने कहा कि भारत में संविधान सभा के गठन की महती आवश्यकता को ध्यान में रहते हुए जल्द ही एक संसदीय प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा जाएगा. इसके अगले चरण में 23 मार्च 1946 को लॉर्ड पैथिक लारेंस, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और ए. वी. अलेक्जेण्डर को मिलाकर बना कैबिनेट मिशन भारत आया. मिशन ने उन सभी पक्षों से बातचीत की, जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने ही पिछले 90 सालों में खड़ा किया और आकार दिया था.

अब भारत की स्वतंत्रता के लिए बातचीत की मेज पर एक नहीं कई पक्ष थे – कांग्रेस, मुस्लिम लीग, रियासतें और रियासतों के मंडल, हिन्दू महासभा, सिख मंडल आदि. इनमें से रियासतों और रियासतों के नरेशों का मंडल (चैंबर ऑफ प्रिंसेस) एक महत्वपूर्ण पक्ष बन गया था. ज्यादातर बड़ी रियासतें चाहती थीं कि वे भारत में शामिल न हों और स्वतंत्र रहें.

कैबिनेट मिशन ने भारत की स्वतंत्रता की दिशा में आगे बढ़ने के लिए अंतरिम सरकार और संविधान सभा के गठन के लिए 24 बिन्दुओं की योजना प्रस्तुत की. जिसमें बिंदु 19 (2) में यह उल्लेख किया गया कि ‘मंशा यह है कि संविधान सभा में रियासतों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए. जनसंख्या के विश्लेषण के अनुसार अधिकतम 93 स्थान रियासतों के प्रतिनिधियों को मिलेंगे. लेकिन इनका चुनाव किस पद्धति से होगा, यह संवाद से तय किया जाएगा.

प्रारम्भिक चरण में रियासतों का प्रतिनिधित्व समझौता समिति (नेगोशियेटिंग कमिटी) के माध्यम से होगा. संविधान निर्माण के आगामी चरणों में रियासतों की पूर्ण भूमिका होगी’. इस स्थिति में दो बड़े सवाल थे – क्या रियासतें भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए तैयार होंगी? यह इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि रियासतें या तो स्वतंत्रता चाहती थीं या फिर स्वायत्तता.

दूसरा सवाल यह था कि यदि रियासतें स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनती हैं और संविधान सभा में 93 प्रतिनिधि भेजती हैं, तो उन प्रतिनिधियों का चुनाव कैसे किया जाएगा?

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

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