जयपुर।राजस्थान की राजनीति के अनुभवी चेहरे और पंजाब के राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया ने रविवार को जयपुर में आयोजित एक साहित्यिक-सामाजिक मंच से राजनीतिक मर्यादा और जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी पर खुलकर अपनी बात रखी। अवसर था भाजपा नेता सतीश पूनिया की पुस्तक ‘अग्निपथ नहीं जनपथ (संवाद से संघर्ष तक)’ के लोकार्पण का। कटारिया ने कहा कि जब सदन में जनता की आवाज शोरगुल में दब जाती है तो उन्हें गहरा दुख होता है।
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सदन कोई लड़ाई का अखाड़ा नहीं बल्कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंच है। यहां जनप्रतिनिधियों को अपने तर्क के साथ, जनता के मुद्दे लेकर पूरी गंभीरता और अनुशासन से अपनी बात रखनी चाहिए।
"जनता को जवाब देना हमारा पहला फर्ज"
गुलाबचंद कटारिया ने कहा कि जिस जनता ने हमें चुनकर सदन में भेजा है, उसका विश्वास सबसे बड़ी पूंजी है। जब सदन बाधित होता है, तो प्रतिनिधियों को भले ही संतोष मिल जाए, लेकिन क्या जनता संतुष्ट होती है? यही आत्ममंथन का विषय है।
उन्होंने यह भी कहा कि राजनीतिक जीवन में रहते हुए उन्होंने हमेशा कोशिश की कि पक्ष-विपक्ष दोनों को साथ लेकर चला जाए। संवाद से समाधान निकलता है, संघर्ष से नहीं।
"राज्यपाल बनने के बाद सीमाएं बढ़ीं, मुलाकातें सीमित हुईं"
कटारिया ने अपनी वर्तमान भूमिका की बात करते हुए कहा कि राज्यपाल बनने के बाद वीआईपी संस्कृति ने सामान्य जन से मेलजोल कम कर दिया है। वे राजस्थान में लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं, इसलिए लोगों से सीधा संवाद नहीं हो पाना उन्हें खलता है। पंजाब में भी उन्होंने प्रयास किया है कि ज्यादा से ज्यादा जिलों में जाकर जनता से सीधे जुड़ सकें।
उन्होंने बताया कि पंजाब में नशामुक्ति यात्रा निकाली गई और बाढ़ प्रभावित इलाकों में जाकर राहत कार्यों की समीक्षा की गई। आमजन से जुड़ाव उनकी आदत में शामिल है।
"विधानसभा सबसे बड़ा मंच है, इसे यूं बर्बाद नहीं किया जा सकता"
कटारिया ने साफ कहा कि विधानसभा से बड़ा कोई मंच नहीं होता। पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। "अगर कोई बात नहीं मानता, तो संगठन की ताकत से उसे समझाना चाहिए," उन्होंने कहा।
उनके मुताबिक, केवल खुद को बड़ा साबित करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए। सही मुद्दे पर जनता के साथ खड़ा होना ही असली जनसेवा है।
पूनिया बोले- अनुभवों को साझा करने की शुरुआत है यह पुस्तक
पुस्तक के लेखक और भाजपा नेता सतीश पूनिया ने बताया कि 'अग्निपथ नहीं जनपथ' उनके विधायक कार्यकाल (2018–2023) के अनुभवों का लेखाजोखा है। यह प्रयास है कि सदन के भीतर और बाहर की राजनीतिक यात्रा को युवा पीढ़ी तक पहुंचाया जाए।
पूनिया ने कहा कि वे आगे छात्र राजनीति, युवा संघर्ष और सत्ता-विपक्ष के अनुभवों को भी पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, ताकि राजनीति में आने वाले युवाओं को दिशा मिल सके।
वरजी बाई की सादगी से शुरू हुई बात, नेताओं की सांप-सीढ़ी तक पहुंची
कार्यक्रम में भीलवाड़ा जिला प्रमुख वरजी बाई भील की सादगी का जिक्र करते हुए पूनिया ने बताया कि जब पार्टी ने उन्हें टिकट देने की बात की, तो उन्होंने सवाल किया कि उनकी बकरियां कौन चराएगा?
कार्यक्रम में हास्य भी देखने को मिला जब पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने सियासत को ‘सांप-सीढ़ी’ बताया और कहा कि उन्हें और पूनिया को ऊपर चढ़ते समय सांप ने डस लिया। इस पर मदन राठौड़ ने हंसते हुए कहा कि वे भी उसी लिस्ट में हैं। टीकाराम जूली ने चुटकी ली कि अगर सदन में ऐसा होता तो वे अड़ जाते कि नाम बताओ!
सदन की गरिमा पर चिंतित हुए दिग्गज
राजेंद्र राठौड़ ने पुराने संसदीय समय को याद करते हुए कहा कि पहले सदन में तीखे तर्क होते थे, लेकिन बाहर आत्मीयता बनी रहती थी। आज की राजनीति में व्यक्तिगत टिप्पणियों का चलन बढ़ गया है, जो चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा कि कोविड काल में जब गहलोत वीडियो कॉन्फ्रेंस कर रहे थे, तब कटारिया घंटों बैठकें करते थे। उन्हीं संघर्षों की नींव पर आज की सरकार खड़ी है।
जूली ने साझा किया स्पीकर द्वारा डांटे जाने का अनुभव
नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने भी एक संस्मरण साझा किया कि जब वे मंत्री थे और एक सवाल का उत्तर ठीक से नहीं दे पाए तो तत्कालीन स्पीकर सीपी जोशी ने उन्हें डांट दिया था। कटारिया ने भी स्पीकर जोशी की निष्पक्षता की सराहना की और बताया कि उन्होंने एक निजी विश्वविद्यालय का बिल वापस करवाया था, क्योंकि उसका ढांचा ही नहीं था।
युवा प्रतिभाएं भी सम्मानित
कार्यक्रम में पांच युवा प्रतिभाओं को भी सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरजी बाई भील ने की। इस अवसर पर भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़, नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली, पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, राज्यसभा सांसद घनश्याम तिवाड़ी, मंत्री मदन दिलावर, सुमित गोदारा सहित कई जनप्रतिनिधि उपस्थित रहे।
निष्कर्ष:
यह कार्यक्रम सिर्फ एक पुस्तक विमोचन नहीं था, बल्कि राजनीतिक मर्यादा, संवाद, जनप्रतिनिधियों की भूमिका और लोकतंत्र की गरिमा को लेकर गंभीर चिंतन का मंच भी बना। गुलाबचंद कटारिया के अनुभव और वक्तव्य इस बात की गवाही देते हैं कि राजनीति में मूल्यों की वापसी के प्रयास अब भी जीवित हैं।
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