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    ब्रज से जयपुर तक पहुंची अन्नकूट की परंपरा

    11 hours ago

    हर मोहल्ले में महकता है नया अन्न, लोक और राजसी संस्कृति का जीवंत उत्सव
    जयपुर। दीपावली की जगमगाहट थमते ही जब गुलाबी नगरी की हवाओं में हल्की ठंडक घुलने लगती है, तब पूरा शहर अन्नकूट की सुगंध से महक उठता है। यह दिन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि जयपुर की राजसी परंपरा और लोकभक्ति का अनोखा उत्सव है — जहां नया अन्न, श्रद्धा, और शाही शान का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
    अन्नकूट का पर्व जयपुर में आमेर रियासत के दौर से प्रचलित है। इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत बताते हैं कि जब दीपावली के बाद नया अनाज बाजार में आता था, तो उसकी खुशी में ब्रज क्षेत्र की परंपरा के अनुसार अन्नकूट मनाया जाता था। भरतपुर और जयपुर के बीच घनिष्ठ संबंधों के चलते यह लोक परंपरा गोवर्धन की 84 कोस परिक्रमा वाले क्षेत्र से आमेर होते हुए जयपुर तक आ गई।
    लोग अपने आंगनों में गोबर से गोवर्धन पर्वत का प्रतीक बनाकर पूजा करते हैं। जयपुर की स्थापना के साथ यह ब्रज परंपरा यहां के गौड़ीय वैष्णव मंदिरों—गोविंददेव, गोपीनाथ, राधा माधव—के माध्यम से शहर की संस्कृति का हिस्सा बन गई।
    सवाई जयसिंह ने दिया राजसी स्वरूप
    सवाई जयसिंह ने इस लोक-उत्सव को राजसी मान्यता दी। उन्होंने अन्नकूट महोत्सव को न केवल प्रोत्साहित किया, बल्कि मंदिरों और मोहल्लों में नए अन्न से बने व्यंजनों के आयोजन के लिए अनुदान भी दिया।
    हर मोहल्ले की अपनी अन्नकूट पहचान बनी—कहीं गट्टे की सब्जी प्रसिद्ध हुई तो कहीं कढ़ी-बाजरा या बाजरे की रोटी के साथ मीठा गुड़। उस दौर में जयपुर के 18 प्रमुख मोहल्लों में विशेष प्रसाद बनता था और ‘नगर प्रसाद’ की व्यवस्था राजपरिवार की देखरेख में होती थी।
    राजराजेश्वर महादेव मंदिर की अद्भुत परंपरा
    सवाई रामसिंह द्वारा बनवाए गए राजराजेश्वर महादेव मंदिर का अन्नकूट आज भी प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान शिव को राजसी वैभव से सजाया जाता था और पूरे शहर के लोग दर्शन के लिए उमड़ते थे।
    यह एकमात्र अवसर था जब आमजन को मंदिर में प्रवेश मिलता था। भगवान को नए अन्न से बने विविध व्यंजन अर्पित किए जाते थे और अन्नदान की परंपरा निभाई जाती थी, जो राजसी भक्ति की झलक दिखाती है।
    बांदरवाल दरवाजे से निकलती थी शाही सवारी
    अन्नकूट के दिन महाराज माधो सिंह स्वयं गौ पूजन करते और फिर ‘मार्गपाली’ की सवारी पर निकलते थे। यह शाही जुलूस सिटी पैलेस की ग्वालेरा डेयरी से आरंभ होकर सिरह ड्योढ़ी, माणक चौक और त्रिपोलिया गेट तक जाता था।
    सिरह ड्योढ़ी पर अशोक पत्तों की ‘बांदरवाल’ (बंदनवार) लगाई जाती थी—इसी वजह से इस द्वार को आज भी ‘बांदरवाल का दरवाजा’ कहा जाता है। जुलूस की शुरुआत और समापन दोनों स्थानों पर भगवान गणेश के दर्शन कर शुभारंभ किया जाता था।
    हर मोहल्ले में नगर-प्रसाद का आयोजन
    जयपुर के प्रत्येक मोहल्ले में अन्नकूट के दिन प्रसाद वितरण की परंपरा रही है। राजपरिवार द्वारा नियुक्त ‘नगर प्रसाद अधिकारी’ इस आयोजन की जिम्मेदारी संभालते थे। सवाई माधोसिंह के काल में यह आयोजन और भी व्यापक हो गया। वे निंबार्क संप्रदाय से जुड़े थे और अन्नदान व दान-दक्षिणा के लिए प्रसिद्ध रहे।
    शहर में उस समय शाम के ज्योणार (सांझ भोज) और प्रसादी का सिलसिला देर रात तक चलता रहता था।
    आज भी जीवित है परंपरा की लौ
    समय भले बदल गया हो, पर जयपुर की यह राजसी परंपरा आज भी जीवित है। गोवर्धन पूजा के दिन गोविंददेव, गोपीनाथ, और राधा माधव मंदिरों में वही पुरानी रौनक लौट आती है। राजराजेश्वर महादेव मंदिर में आज भी प्रसाद वितरण और अन्नदान का आयोजन होता है।
    अब देवस्थान विभाग भी इन आयोजनों का हिस्सा बन चुका है, जिससे परंपरा को नई ऊर्जा मिल रही है। जयपुर आज भी हर गोवर्धन पूजा पर उस पुरानी महक से भर उठता है — जहां हर मोहल्ला, हर रसोई और हर दिल में ‘नए अन्न की खुशबू’ बस जाती है।


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